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[ १८३ ] तिण दान रा गुण देवता भी कीधां, ठांम ठांम सूतर में कह्यो भगवंत ॥२४॥
- भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर पृष्ठ २५७साधुओं को सुपात्र दान उस सुपात्र
संसार परीत किया है ।
भगवान ने स्थान-स्थान पर सूत्रों में
अर्थात् प्रथम गुणस्थान में स्थित जीव- मिध्यात्वी देकर अन्तत जीवों ने संसार अपरीत से दान की प्रशंसा - देवों ने भी की है ऐसा कहा है ।
निरवद्य क्रिया के द्वारा मिध्यात्वों कर्मों का चकनाचूर कर देता है । जो मिथ्यात्व की निरवद्य क्रिया अशुद्ध कहता है उसकी सम्बग श्रद्धा नहीं है । प्रश्न उठता है कि मिथ्यात्वी को जीव, अजीव आदि नव तत्त्वों, धर्मास्तिकाय आदि षट् द्रव्यों की सम्बग जानकारी नहीं होती है अतः उसके सम्यग्दर्शन भी नहीं होता- इसलिए वह जो कुछ शुद्ध क्रिया उपवासादि करेगा वह भौतिक सुखों की पारलौकिक सुखों की इच्छा से करेगा । अतः उस क्रिया का फल कुछ नहीं होता है । इसका पष्टीकरण युगप्रधान आचार्य तुलसी ने इस प्रकार किया है
" लक्ष्य की गलती से करणी गलत हो नहीं सकती, यदि वह निरवद्य है। हाँ, लक्ष्य के गलत होने से उतना लाभ नहीं होता है, जितना होना चाहिए । लेकिन करणी का विराधना में चला जाना सम्भव नहीं । इस तरह करणी विराधना में चली जाय तो फिर मिथ्यात्वी से सम्यक्त्वी हो ही कैसे ?"
- ११ जून १६५३ जैनभारता कतिपय मिथ्यात्वी शुद्ध लक्ष्य से भी क्रिया करते हैं अतः उनके सकाम निर्जरा भी होती है । इस प्रकार क्षयोपशम से मिध्यात्वी को विविध गुणों की उपलब्धि होती है ।
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