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[ १७२ ] "अभव्य आत्म कल्याण के लिए करणो नहीं करता सिर्फ बाह्य दृष्टि-पूजा प्रतिष्ठा, पौद्गलिक गुण की दृष्टि से करता है। क्या ऐसी क्रिया निर्जरा नहीं ? अवश्य अकाम निर्जरा है।
निर्जरा के बिना क्षयोपशमिक भाव यानि आत्मिक उज्ज्वलता होती नहीं। अभव्य के भी आत्मिक उज्ज्वलता होती है। दूसरे निर्जरा के बिना पुण्यबंध नहीं होता । पुण्य बंध निर्जरा के साथ ही होता है ---यह ध्रु वसिद्धांत है । अभव्य के निर्जरा धर्म और पुण्यबंध दोनों होते हैं। निर्जरा के कारण वह अंशरूप में उज्ज्वल रहता है। पुण्यबंध से सद्गति में जाता है। इहलोक आदि की दृष्टि से की गई तपल्या लक्ष्य की दृष्टि से अशुद्ध हैं किन्तु करणी की दृष्टि से अशुद्ध नहीं हैं।" ___कतिपय मिथ्यात्वी भी निदान रहित धर्म क्रिया करते हैं। वे मोक्षाभिलाषी भी होते हैं। जैसे धर्मक्रिया मोक्ष के लिए करना उचित है उसी तरह धर्म क्रिया करने के बाद उसके बदले में सांसारिक फल की कामना करना भी उचित नहीं । आचार्य भिक्षु ने कहा है
"करणी करें नीहांणो नहीं करें, ते गया जमारो जीत । तामली तापस नीहांणो कीधो नहीं, तो इसाण इन्द्र हुवो वदीत ।
-भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर भाग १ अर्थात् बालतपस्वी तामली तापस ने देवताओं के कथनानुसार निदान नहीं किया ; फलस्वरूप तप से ईशानेन्द्र हुआ। निष्काम तप (आत्मशुद्धि की कामना के अतिरिक्त अन्य किसी कामना से नहीं किया हुआ तप ) कर्मों का क्षय विशेष रूप से करता है अतः वह निःश्रेयस का कारण है । शुभयोग की प्रवृत्ति के कारण कर्मक्षय के साथ साथ पुण्य का भी बंध होता है जो सांसारिक अभ्युदय का हेतु होता है। आपसे मिथ्यात्वी पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करता है । कहा है - तवेणं भंते ! जीवे कि जणयइ। तवेणं वोदाणं जणयई।
-उत्त० २६४२७ अर्थात् तप से पूर्व बद्ध कर्मों का क्षय होता है। सम्यगबोध न होने के कारण मिथ्यात्वी को मोक्ष प्राप्ति न होती हो परक्रियापरक होने से स्वास
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