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________________ [ १७० ] अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्म के क्षयोपशम होने से सच्ची एवं शुद्ध श्रद्धा उत्पन्न होती हैं। तीनों दृष्टियों में शुद्ध श्रद्धान हैं । क्षयोपशम भाव ऐसा उत्तम है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम होने से मिध्यादृष्टि उज्जवल होतो है। जिससे जीव कई पदार्थों में ठोक ठोक श्रद्धा करने लगता है । मिथ्यात्व मोह. नीय के क्षयोपशम से ऐसा गुण उत्पन्न होता है। आचार्य भिक्षु ने मिथ्यादृष्टि (क्षयोपशम भाव रूप ) को क्षायिक सम्यक्त्व की बानगी-नमूना कहा है।' अस्तु मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के अयोपशम से मिध्यादृष्टि उज्ज्वल होती है । इससे जीव कुछ पदार्थों की सत्य श्रद्धा करने लगता है। क्रोधादिक का रोकना, कलह मादि का निवारण करना-आदि सदनुष्ठान मिथ्यात्वी के भो हो सकते हैं। तपस्या से जीव संसार का अंत करता है, कर्मों का अंत लाता है। और इसी तपस्या के प्रताप से घोर मिथ्यात्वी जीव भी सिद्ध हो जाते हैं। निर्जरा की अभिलाषा से जब मिथ्यात्वी तप करते हैं तब उनके सकाम निर्जरा होतो है। देवानंदसूरि ने कहा है सकाम निज्जरा पुण निज्जराहिलासीणं xxx। छव्विहं बाहिरं xxx छविहमभंतरं च । -नवतत्त्वसाहित्यसंग्रह-सप्ततत्त्वप्रकरण अ६ अर्थात् कर्म क्षयकी अभिलाषा से बारह प्रकार के तपों के करने से जो निर्जरा होती है वह सकाम निर्जरा है। तपस्या से मिथ्यात्वी संसार को संक्षिप्त कर शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करते हैं। ____आचार्य भिक्ष ने सकाम निर्जरा साघु-श्रावक, व्रती-अवती, सम्यगदृष्टि. मिष्याष्टि आदि सभी के स्वीकार की है। तप निरवध और लक्ष्य कर्म-क्षय का हो वहाँ सकाम निर्जरा होगी । जहाँ लक्ष्य कर्म क्षय नहीं वहाँ शुद्ध तप भी सकाम १-खयउपसम भाव तीनूंइ दिष्टी छे, ते सगलोइ सुध सरधान हो। ते खायक समकत माहिली बानगी, मातर गुण निधान हो । -नव पदार्थ, निर्जरा की ढाल १, गा० ४० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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