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________________ [ १६ ] अर्थात् उज्ज्वल मियादृष्टि की प्राप्ति-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होती हैं। चारित्र मोहनीय कर्म की पचौस प्रकृतियों में से कई सदा क्षयोपशम रूप में रहती है, इससे जीव अंशतः उज्ज्वल रहता है और इस उज्ज्वलता से शुभ अध्यवसाय का वर्तन होता है। कभी क्षयोपशम अधिक होता है तब उससे जीव के अधिक गुण उत्पन्न होते हैं। क्षमा, दवा, संतोषादि गुणों की वृद्धि होती हैं और शुभ लेश्याएं वर्तती हैं। मिथ्यात्वी के अंतरायकर्म व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से शुभ ध्यानादि भो होते है । नव पदार्थ की चौपई, ढाल १ में आचार्य भिक्षु ने कहा हैभला परिणाम पिण वरते तेहनें, भलाजोग पिण वरते ताय हो । धर्मध्यान पिण ध्यावे किण समें, ध्यावणी आवें मिटीयां कषाय हो ॥२८ ध्यान परिणाम जोग लेश्या भली, वले भला वरते अधवसाय हो । सारा वरते अंतराय खयउपसम हूआं,मोहकरम अलगा हूआ ताय हो॥२६ -भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर भाग १, पृष्ठ ४२ चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम होने से मिष्यात्वी के शुभपरिणाम तथा शुभ योगोंका वर्तन होता है । कभी-कभी धर्मध्यान भी होता है परन्तु बिना कषाय के दूर हुए पूरा धर्मध्यान नहीं हो सकता। शुभध्यान, शुभपरिणाम, शुभयोग, शुभ लेश्या और शुभअध्यवसाय - ये सब उसी समय वर्तते हैं जब अंतराय कर्म का क्षयोपशम हो जाता है तथा मोह कर्म दूर हो जाता है । मिथ्यादृष्टि में भी कतिपय पदार्थों में शुद्धश्रद्धान है । नव पदार्थ की चौपई में कहा है - दरसण मोहणी खयउपसम हुआं, नीपजें साची सुध सरधान हो। तीनूदिष्ट में सुध सरधान छे, ते तो खयउपसम भाव निधान हो ॥३४॥ मिथ्यात मोहणी खयरपसम हुआ, मिथ्यादिष्टी उजली होय हो। जब केयक पदार्थ सुध सरधलें, एहवो गुण नीपजें जें सोय हो ॥३॥ --भिक्ष ग्रन्थ रत्नाकर भाग १, निर्जरा की ढाल १ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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