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[ १६८ ] मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम होने से मतिज्ञान और भतिअज्ञान उत्पन्न होते हैं और श्रुतज्ञानावरणीय के क्षयोपशम होने से श्रुतज्ञान और श्रुतअज्ञान । सम्यगदृष्टि आचारांग आदि चतुर्दश पूर्व का ज्ञानाभ्यास कर सकता है और मिथ्यात्वी देश-न्युन दस पूर्व तक का ज्ञानाभ्यास। अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने से सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञान प्राप्त करता है और मियादृष्टि को. क्षयोपशम के परिणामानुसार विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है । ज्ञान-अज्ञान दोनों साकारोपयोग है और इन दोनों का स्वभाव एक सा है। वे कर्मो के दूर होने से उत्पन होते हैं और उज्ज्वल क्षयोपशम भाव है।
३: मिथ्यात्वी के क्षयोपशम से विभिन्न गुणों की उपलब्धि
चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम प्राणो मात्र में होता है अत: मिथ्यात्वों के भी उसका क्षयोपशम होता है। प्रशस्त अध्यवसाय और शुभलेल्या का वर्तनचारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होता है। आचार्य भिक्षु ने नवपदार्थ की चौपड, निर्जरा पदार्थ की ढाल १ में-कहा है
मोहकरम खयउपसम हूआं, नीपजें आठ बोल अमांम हो। च्यार चारित ने देस विरत नीपजें, तीन दिष्टी उजल होव ताम हो ॥२५॥ चारित्र मोहरी पचीस प्रकत मझे, केइ सदा खयउपसम रहें ताय हो। तिणसं अंस मात उजलो रहे, जब भला वरते छे अधवसाय हो ॥२६॥ कदे खयउपसम इधको हूवें, जब इधका गुण हुवें तिण मांय हो। खिमा दया संतोषादिक गुण वधे, मले लेस्यादि वरतें जब आय हो ॥२७॥
-भिक्षुग्रन्थ रत्नाकर भाग १, पृष्ठ ४१
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