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[ १५३ ] अर्थात् जो बुद्धि पहले बिना देखे, बिना सुने, बिना जाने विषयों को उसी 'क्षण में विशुद्ध यथावस्थित ग्रहण करती है व अबाधितफल के संबंधवाली है वह
औत्पातिकी नामक बुद्धि है। शास्त्राभ्यास व अनुभव आदि के बिना केवल उत्पात से ही जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह औत्सात्तिको बुद्धि है । श्री मज्जयाचार्य ने कहा है__ “मतिज्ञान ना दो भेद-श्रुतनिश्चित और अश्रुतनिश्चित । xxx पूर्व दिठ्योनहीं-सुण्यो नहीं ते अर्थ तत्काल ग्रहण करे ते उत्पातनी बुद्धि अश्रतनिश्चित मतिज्ञान नो भेद कह्यो।"
-भ्रमविध्वंसनम अधिकार २३३२ २. धनयिकी बुद्धि-कठिन कार्य भार के निस्तरण-निर्वाह करने में समर्थ तथा धर्म, कामरूप त्रिवर्ग के वर्णन करने वाले सूत्र और बर्थ का प्रमाण व सार ग्रहण करने वाली तथा जो इस लोक ओर परलोक में फलदायिनी है वह विनय से होने वाली बुद्धि है। कहा है
भरणित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला । उभयोलोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धि ॥
-नन्दीसूत्र, सूत्र ६३ अर्थात् विनय से उत्पन्न हुई बुद्धि कठिन से कठिन प्रसंग को भी सुलझानेवाली और नीतिधर्म व अर्थशास्त्र के सार को ग्रहण करने वाली होती है।
३-कर्मजा बुद्धि-एकाग्र चित्त से उपयोग से कार्यों के परिणाम को देखने वाली, तथा अनेक कार्यों के अभ्यास और विचार-चिंतन से विशाल एवं विद्वानों से की हुई प्रशंसा रूप फल वाली ऐसी कर्म से उत्पन्न होने वाली बुद्धि कर्मजा कहलाती है।
४-परिणामिकी बुद्धि-अनुमान, हेतु ओर दृष्टांत से विषय को सिद्ध करने वाली, अवस्था के परिपाक से पुष्ट तथा उन्नति और मोक्ष रूप फलवाली बुद्धि परिषामिकी है। कहा है
(१) उपयोगादिट्ठसारा, कम्मपसंगपरिषोलणविसाला । साहुक्कारफलवई, कम्मसमुत्या हवइ बुद्धी ।।
-नंदोसूत्र, सूत्र
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