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________________ [ १५२ । अस्तु मिथ्यादृष्टि नारकी में तीन अज्ञान, पृथ्वोकाय से वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में प्रथम के दो अज्ञान, पंचेन्द्रिय तियंच योनिक जोव तथा मनुष्य, भवनपति मादि चार निकाय के देवों में तीन अज्ञान होते हैं।' ___ज्ञान विशेष धर्मों को जानता है अत: इसे साकारोपयोग कहते है। इसके विपरीत दर्शन सामाग्य धर्मों को पानता है अत: इसे अनाकारोपयोग कहते हैं। दर्शन के चार भेद हैं, यथा-१. चक्षुदर्शन, २. अचक्षुदर्शन, ३. अवधिदर्शन और ४. केवलदर्शन। चक्षु के सामान्य बोध को चक्षुदर्शन और शेष इन्द्रिय तथा मन के सामान्य बोध को अचक्षु दर्शन कहते हैं, अवधि और केवल के सामान्य बोध को क्रमशः भवधिदर्शन और केवलदर्शन कहते हैं। __ मिथ्यात्वी के उपरोक्त चार दर्शन में से पहले के तीन दर्शन-चक्षु-अचाअवधि दर्शन होते हैं। जिस मिथ्यावी को विभंगअज्ञान होता हैं उस मिथ्यात्वी को अवधि दर्शन होगा ही। मिथ्यात्वी अवधिदर्शन से सामान्य बोध तथा विभंग अज्ञान से विशेष बोध करता है। भावों की अविशुदि से मिथ्यात्वी का विभंग अज्ञान चला भो जाता है तथा भावों की विशुद्धि से मिथ्यात्वी सम्यक्त्व को प्राप्तकर लेते हैं तब उनका विभंग अज्ञान अवधि ज्ञान रूप में परिणत हो जाता है। मंदी सूत्र में अश्रतनिश्रित मविज्ञान चार बद्धि रूप कहा गया है, यथाओत्पात्तिकी, नयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी । १. औत्पात्तिकी बुद्धि-पहले बिना देखे, बिना सुने और बिना जाने पदार्थों को तत्काल ही ( उसी क्षण में ) विशुद्ध यथार्थ रूप से ग्रहण करनेवाली तथा अबाधित फल के योगवाली बुद्धि औत्पात्तिकी बुद्धि है। कहा है पूव्वं अविट्ठमसुयमवेइय-तक्खण-विसुद्धगहियत्था । अव्वायफलजोगा, उत्पत्तिया नाम ॥ -नन्दी सूत्र, सूत्र ४७ (१) भगवतो श ८, उ २ सू १०५ से १०९ (२) भगवती श६। उ ३१॥ सू ३३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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