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[ १५४ ] अणुमाण-हेउ-दिढतसाहिया वयविवाग परिणामा । हियणीस्सेसफलवई, बुद्धी परिणामिया णाम ।
-नन्दी सूत्र, सू ६८ अर्थात जो स्वार्थानुमान हेतु और दृष्टांत से विषय को सिद्ध करती है तथा लोकहित व लोकोत्तर मोक्ष को देने वाली-ऐसी अवस्था के परिपाक से होनेवाली बुद्धि परिणामिकी है।
उपरोक्त चारों बुद्धियाँ मिथ्यात्वी के होती हैं। कोष्ठादि के भेद से बुद्धि तीन प्रकार की होती हैं ।' कहा है
तिस्रो हि बुद्धयः xx तद्यथा-कोष्ठबुद्धिः १, पदानुसारिबुद्धिः २, बीजबुद्धि ३ श्च ।
--प्रज्ञापना पद २॥ सूत्र १५३३ टीका अर्थात् बुद्धि के तीन भेद हैं यथा(१) कोष्ठबुद्धि-सुनने के समय बाद करना, कालान्तर में भूल जाना।
(२) पदानुसारी बुद्धि-एक पद को सुनकर शेष के पदों को बिना सुने अर्थ लगाना । ___(३) बीजं बुद्धि-एक अर्थ पद के अनुसार अपनी स्वयं को बुद्धि से विस्तार से जाना।
यद्यपि मिथ्यात्वी में यत्किचित् तीनों प्रकार की बुद्धि मिलती हैं। परस्पर मिथ्यात्वी के भी आध्यात्मिक विकास में तरतमता रहती है।
इस प्रकार मिथ्यात्वी के (श्रुतनिश्रित तथा अश्रुतनिश्रित-दोनों प्रकारका) मतिमज्ञान, श्रुतमज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनये छह उपयोग होते हैं।
२: मिथ्यात्वी के कर्मों के क्षयोपशम से ज्ञानोत्पत्ति चाहे सम्यगद्दिष्ट हो चाहे मियादृष्टि हो, नवीन ज्ञान की उत्पति के समय में विशुद्धलेश्या, प्रशस्त अध्यवसाय और शुभपरिणाम आदि का उल्लेख मिलता है।
- १-प्रज्ञापना पद २१॥ १५३३ टोका
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