SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १४८ ] अत: भारत, रामायण आदि ग्रन्थ कभी-कभी मिथ्यात्वो के सम्यगश्रुत बन जाते हैं। कहा हैअभवसिद्धीयस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसियं च । -नंदीसूत्र-सूत्र ७५ अर्थात् अभवसिद्धिक का श्रुत-मिष्याश्रुत अनादि-अन्तर हित है। इसके विपरीत मिथ्यादृष्टि भवसिद्धिक का श्रुप्त सादि-सांत है क्योंकि वे किसी दिन मिथ्यात्व से निवृत्त हो सकते हैं। कहा है --- जं सुच्चा पडिवज्जति तवं खंतिमहिंसयं । -पुरुषार्थ चतुष्टयी उ ३, गा ८ अर्थात् जिस शास्त्र को सुनकर श्रोता, तप शांति और अहिंसा को धारण करते हैं, उसे सम्यगश्रुत शास्त्र कहते हैं। कतिपय मिथ्यात्वी कामशास्त्र, रामायण आदि से विशुद्ध दृष्टि के कारण सम्यगज्ञान की प्राप्ति कर लेते हैं। बघन्य सम्यगज्ञान की आराधना से भी अधिक से अधिक से अधिक ७८ भव करके सिद्ध हो जाता है अत: मिथ्यात्वी साधुओं के निकट बैठकर सम्यगज्ञान की बाराधना का अभ्यास करें। मिथ्यात्व को छोड़े, ज्ञान में रमण करें। कहा है___जहन्नियण्णं भंते । णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्मंति, जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? गोयमा ! अत्थेगइए तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्मइ जाव सम्वदुक्खाणं अंतं करेइ, सत्तट्ट भवग्गहणाइ पुणनाइक्कमइ। । -भगवती श ८। उ १०। सू४६४ अर्थात जघन्य जान की आराधना करने वाले कई एक व्यक्ति तीसरे भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं। लेकिन अधिक से अधिक ७.८ भव करके सिद्ध, बुद्ध-मुक्त होंगे ही। अतः मिथ्यात्वी अज्ञान को छोड़े, ज्ञान की आराधना का अभ्यास करे। मिथ्यात्वी का मतिअज्ञान-श्रुतअज्ञान परोक्ष प्रमाण तथा विभंगज्ञान-प्रत्यक्षप्रमाण के अंतर्गत आ जाते हैं। स्मृति-प्रत्यभिज्ञा तर्फ अनुमान आदि परोक्ष Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy