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[ १४७ ] "मिच्छद्दिहिस्स वि एयाई चेव सम्मसुयं, कम्हा? सम्मत्तहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्ठिया तेहिं चेव समरहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठिओ वति ।
-नंदीसूत्र सू ७२ आचार्य भिक्षु ने कहा है कि मिथ्यात्वी को क्षयोपशम के परिणामानुसार विभंगअचान उत्पन्न होता है तथा वह देशोन दसपूर्व तक का ज्ञानाभ्यास कर . सकता है।
भारतीय संस्कृति में तत्त्व का प्रतिपादन दो दृष्टियों से हुआ है-अस्तित्व की दृष्टि से और अध्यात्म को दृष्टि से। मिथ्यादर्शन पूर्वक शान 'अज्ञान' है। इसके विपरीत सम्यगदर्शनपूर्वक ज्ञान 'ज्ञान' है। यह ज्ञान-अज्ञान के स्वरूप का निर्णय जैन दर्शन में अध्यात्म दृष्टि से है, अस्तित्व की दृष्टि से ज्ञान 'ज्ञान' हो है । अतः इसे क्षायोपशमिक भाव माना गया है। उपयोगिता की दृष्टि से सत्य वह है जो आत्मलक्षी है। जो ज्ञान आत्मलक्षी नहीं है, वह ज्ञान-अज्ञान कहलाता है। विवेक ज्ञान भी सम्यग्दर्शन से फलित है, इसलिए सम्यगदर्शन के साथ होने वाले ज्ञान को ही ज्ञान माना गया है।
श्रुझान मतिपूर्वक होता है किन्तु मतिश्रुतपूर्षिका नहीं होती, इसलिए मति-श्रुत-दोनों में मतिज्ञान का ही पूर्व प्रयोग होता है।
अर्थात् विशेषता की अपेक्षा से रहित श्रुत-श्रुतज्ञान और श्रुतअज्ञान-उभय रूप कहा जाता है। एवं विशेषता पाकर वही सम्यगह ष्टि का श्रुत-श्रुतज्ञान तथा मिथ्यादृष्टि का श्रुत-श्रुतअज्ञान कहा जाता है। कहा है"अभिण्णदसपुषिस्स सम्मसुयं, तेण परं भिण्णेसु भयणा ।"
-नन्दीसूत्र, सूत्र ७१ अर्थात दसपूर्वो का संपूर्ण ज्ञान सम्यक्त्वी को ही होता है, उससे आगे पूर्वो के भिन्न होनेपर याने कुछ कम दस, नव आदि पूर्वज्ञान हो तो सम्यगश्रुतपन की भजना है याने उसके लिए यह सम्यगश्रुत भी हो सकता है, मिथ्याश्रुत भी। अतः सिद्ध होता है कि मिथ्यात्वी के देशोन दस पूर्वो का ज्ञान होता है।
१-नवपदार्थ की चौपई
-निर्जरा पदार्थ की ढाल १। गा १५-१६
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