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[ १४६ ] प्रमाण भी मिथ्यात्वी में मिलते हैं। जातिस्मरण-स्मृति सप परोक्ष प्रमाण हो है' जो मिथ्यात्वो के होता ही है। स्मृति और प्रत्यक्ष के संकलनात्मक ज्ञान कों प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। यह निश्चित है कि स्मृति के बिना-प्रत्यभिज्ञा हो नहीं सकती। प्रत्यभिज्ञा भी मिथ्यात्वों के होती ही है। जातिस्मरण ज्ञान के बिना भी मिथ्यात्वी के स्मृतिज्ञान भी हो सकता है। साध्य-साधन के अविनाभाव सम्बन्ध को तर्फ कहते हैं तथा साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। तर्क के बिना अनुमान ज्ञान नहीं हो सकता है। मिथ्यात्वों के तर्क और अनूमान दोनों हो सकते हैं।
कहीं कहीं इन्द्रिय और मनकी सहायता से होनेवाले ज्ञान को-सांव्यावहारिक प्रत्यक्षशान कहा है जो मिथ्यात्वो के हो सकता है। इन्द्रिय और मनको सहायता के बिना आत्मा से विभंगज्ञान होता है जो प्रत्यक्ष प्रमाण का भेद है। मिथ्यात्वी के हो सकता है। यह ध्यान में रहे कि संज्ञो मिथ्यात्वी को लेश्याकी विशुद्धि से विभंगज्ञान होता है लेकिन असंज्ञो मिथ्यात्वी को किसी भी काल में विभंग ज्ञान नहीं होता।
इस प्रकार मिध्यात्वी में परोक्ष प्रमाण व प्रत्यक्ष प्रमाण दोनों होते हैं।
यह कहा जा चुका है कि मिथ्यात्व के संसर्ग के कारण मिथ्यात्वी का ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है। आगम में मतिज्ञान के स्थान पर मतिअज्ञान का भी व्यवहार हुआ है । मिथ्यात्वी के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा–ये चारों प्रकार के अज्ञान होते हैं । भगवती सूत्र में कहा है
१- संस्कारो बोषतदित्याकारा स्मृतिः
-भिक्षु न्यायकर्णिका ३।४ २-स एवायमित्यादिसंफलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञा
-जेन सि० दीपिका प्र० ९।१२ ३-व्याप्तिज्ञानं तर्कः, साध्मसाधनयोनित्यसंबंधः व्याप्तिः।
--जैन सि० दीपिका १३ साधनात साध्यज्ञानं अनुमानम्
-जैन सि० दीपिका ६।१४
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