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षष्ठम अध्याय
१ : मिथ्यात्वी और ज्ञान-दर्शन मिथ्यादृष्टि के उपयोग का कालमान नियमतः असंख्यात समय-अंतर्मुहूर्त का होता है क्योंकि पर्याय का परिच्छेद -बोध करने में असंख्याप्त समय लग जाता है । वह छद्मस्थ है । छद्यस्थ का उस प्रकार का स्वभाव है । मियादृष्टि में छह उपयोग होते है-यथा-मतिअशान, श्रुतअज्ञान, विभंगअशान, चक्षुदर्शन, अचक्षु-दर्शन तथा अवधिदर्शन । मति-श्रुप्त-अवधिज्ञान-जब मिथ्याव मोह से मलिन होते है तब क्रमशः मतिअज्ञान, श्रुतमज्ञाम तथा विभंग अज्ञान का व्यवहार होता है । कहा है - "आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् ।
-प्रज्ञापना पद २६/ ११०६ । टीका अर्थात् आदि के तीन ज्ञान को मिथ्यात्व के संयुक्त होने से अज्ञान कहे जाते हैं । आचार्य मलयगिरि ने कहा है
तत्र सम्यगदृष्टीनां मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानानि, मिथ्यादृष्टीनां मत्यज्ञानश्रुतज्ञानविभंगज्ञानानीति सामान्यतो नरयिकाणां षडुविधः साकारोपयोगः ।xxx।
-प्रज्ञापना पद २६॥ १६१३। टीका अर्थात सम्यग्दृष्टि नारको में मति-श्रुत-अवधिज्ञान और मिथ्यादृष्टि नारकी में मति श्रुत-विभंग अज्ञान होते हैं। इसी प्रकार अन्य दंडकों के विषय में समझ लेना चाहिए जिसमें जो हो यह कहना ।
मिथ्यात्वी का श्रुतमशान ओर विभंगज्ञान भो त्रिकाल-विषयक कहा है क्योंकि उससे अतीत और अनागत भाव का ज्ञान होता है तथा इन दोनों अज्ञान को साकारपश्यत्ता शब्द से अभिहित किया है।' श्रुतअज्ञान से अतीत बोर अनागत १-श्रुताज्ञानविभंगशाने अपि त्रिकाल विषये, ताभ्यामपि यथायोगमतीतानागतभावपरिच्छेदात् ।
-प्रज्ञापना पद ३०१९१७ -टोका
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