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________________ [ १४२ ] अत्यन्त वेदना पाते हुए और दुःखी होते हुए अमानुषी-मनुध्येतर योनियों में भ्रमण करते हैं । अतः मिथ्यात्वो साधुओं के निकट बैठकर धर्म का श्रवण करें, पराक्रम करें। मनुष्यजन्म पाकर जो मिथ्यात्वी धर्म को सुनता है और श्रद्धा करता हुआ उसके अनुसार पुरुषार्थ-आचरण करता है वह सुलभ बोधि होता है तथा शुभलेश्या में मरण प्राप्त कर शुभगति में उत्पन्न होता है । मोक्ष को चाहने वाला मिथ्यात्वी कृष्णादि तीन हीन लेश्याओं से निवृत्त होनेका अभ्यास करे, तेजो आदि शुभ लेश्यामें प्रवृत्ति करे । आचार्य पुज्यपाद ने समाधिशतक में कहा है अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः। त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः ॥ __ -समाधिशतक अर्थात् मोक्षाभिलाषी पुरुष अवतों का त्याग करके व्रतों में स्थित होकर आत्मा के परम पद को प्राप्त करे और उस आत्मा के परम पद को प्राप्त होकर उन व्रतों का भी त्याग करें। अतः मिथ्यात्वो मिध्यादर्शन से निवृत्त होकर सम्यगदर्शन को प्राप्त करने की चेष्टा करे । मरुदेवी माताने हाथी के ओहदे पर, भरतचक्रवर्ती ने आरिसा भवन में केवल ज्ञान प्राप्त किया । इन दोनोंका सबक लेकर मिथ्यात्वी दुर्लभवोधि से सुल मबोधि का अभ्यास करें, अव्रत से व्रत की ओर बढे । श्री ममयाचार्य ने कहा है "जे पुरुष गृहस्थपणे प्रकृति भद्रपरिणाम क्षमादि गुणसहित एह वा गुणं ने सुव्रती कह्या। परं १२ व्रतधारी न थी। ते जाव मनुष्य मरि मनुष्य में उपजे । एतो मिथ्यात्वी अनेक भला गुणां सहित ने सुभी कयो छै । ते करणी भली आज्ञा मांही छै।" इस प्रकार सझनुष्ठानिक क्रियाओं से मिथ्यात्वी सुलमबोधि हो सकता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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