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[ १४१ ] चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सात्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा-पगतिमद्दताते. पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाते, अमच्छरिताते ।
-ठाणांग ४।४।६३० अर्थात् चार कारणों से जीव (मिथ्यात्वी) मनुष्य गति के आयुष्य का बंधन करता है-यथा-१-सरल स्वभाव से, २-विनीत स्वभाव से, ३- दयालुता से और ४---अमत्सर भाव से।
अस्तु मिथ्यात्वी कर्मग्रन्थि के रहस्य को साधुओं से समझकर दुर्लभबोधिसे सुलभबोधि होने का तथा सुलभबोधि से सम्यगदर्शन को प्राप्त करने की चेष्टा करे। सद् अनुष्ठानिक क्रियाओं के द्वारा कर्मरूपी ग्रन्थि का छेदनकर केवलीप्ररूपित धर्म का आचरण करे।
जो मिथ्यात्वी साधुओंकी संगति में रहकर जिनेन्द्र भगवान के वचनों में अनुरक्त हो जाते हैं, जितेन्द्र भगवान् द्वारा कथित सद् अनुष्ठानों को भावपूर्वक करते हैं; रागद्वेष से छुटकारा पाने का प्रयत्न करते हैं वे मिथ्यात्वी आगामी काल में सुलभबोधि होते हैं तथा वे परीत्तसंसारी होते हैं। इसके विपरीत जो मिथ्यात्वी-सद्संगति से दूर रहते हैं। साधुओं को सम्मुख आते हुए देखकर लुक-छिप जाते हैं, मिथ्यादर्शन में अनुरक्त हैं। प्रायः कृष्णादि तीन हीन लेश्याओं के परिणाम वाले होते हैं वे मिथ्यात्वो आगामी काल में दुर्लभबोधि होते हैं -
मिच्छादसणरत्ता, सणियाणा कण्हलेसमोगाढा। - इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥
-उत्त० अ ३६|गा २६५ अर्थात् मिथ्यादर्शनमें अनुरक्त, निदान सहित क्रियानुष्ठान करने वाले, कृष्णलेयाको प्राप्त हुए, इस प्रकार के अनुष्ठान से जो जोव मरते हैं उनको पुनः परलोक में बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति होनी, अत्यन्त दुर्लभ हैं । कर्मसंग से मूढ हुए प्राणी
(१) मिच्छादसणरत्ता, सणियाणाहु हिंसगा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुलहा बोही ॥
-उत्त०३६२६३
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