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________________ [ १४० ] २ - अरिहंत भगवंत द्वारा प्ररूपित श्रुख, चारित्र रूप धर्म का अवर्णवाद बोलने से । ३- बाचार्य - उपाध्याय का अवर्णयाद वोलने से । ४ - चतुर्विध संघका अवर्णवाद बोलने से 1 ५—भवान्तर में उत्कृष्ट तप और ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान किये हुए देवों का अवर्णवाद बोलने से । दुर्लभबोधि मिध्यात्वी प्रायः दक्षिणगामी नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं । ठाणांग सूत्र में कहा है - दुविहा नेरइया पन्नत्ता, तंजा - सुलभबोधिया चेव दुलभबोधिया चैव जाव वेमाणिया -ठाणांग २११११६० अर्थात् नारकी बावत् वैमानिक दण्डकों के जीव दो प्रकार के होते हैं- सुलभबोधि और दुर्लभबोधि । यथा यद्यपि मनुष्यभवकी प्राप्ति दुर्लभ है फिर भी कतिपय मिथ्यात्वी प्रकृति भद्रादि परिणाम से मनुष्यभवको प्राप्त कर लेते हैं । भद्रादि परिणाम - निरवद्यः क्रिया है । ठाणांग सूत्र में कहा है "छट्टाणाइ सव्वजीवाण णो सुलभाई भवंति, तंजहा - माणुस्सए भवे, आरिए खित्त जम्मं । सुकुले पच्चायाती । केवलिपन्नतरस धम्मस्स सवणता । सुयस्स वा सद्दहणता । सहहितस्स वा पत्तितरस वा रोहतस्व वा सम्मं कारणं फासणया । - ठाण० स्था ६ । सू १३ अर्थात् जो वस्तुएँ अनंत काल तक संसार चक्र में परिभ्रमण करने के बाद कठिनता से प्राप्त हों तथा जिन्हें प्राप्त करके जीव संसार चक्र को काटने का प्रयत्न कर सके उन्हें दुर्लभ कहते हैं - निम्नलिखित छह वस्तु प्राप्त होना सुलभ नहीं हैं यथा - मनुष्यजन्म, आर्य क्षेत्र, धार्मिक कुलमें उत्पन्न होता, केवलित्ररूपित धर्म का सुनना, केवलिप्ररूपित धर्म पर श्रद्धा करना और केवलिप्ररुपित धर्म का आचरण करना । ठायांग सूत्र में कहा है # Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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