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[ १४४ ] भावों का भी ज्ञान हो सकता है । त्रिकाल विषयक आगम ग्रन्थादि के अनुसार इन्द्रिय और मनो निमित्त से जो विज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान-श्रुतअज्ञान कहते है। विभंग ज्ञान से अतीत और अनागत काल का ज्ञान होता है।
मिथ्यात्व में प्रवृत्त होने के दो हेतु माने गये हैं --अज्ञान और मोह । जैसाकि षटखंड पाहुड़, चारित्र प्राभृत में कहा है
मिच्छादसण मग्गे मलिणे अण्णाण मोहदोसेहि ।
वज्झति मूढ जीवा मिच्छत्ता बुद्धि उदएण ॥ मिथ्यात्व का अंतरंग कारण अनन्तानुबंधी कषायोदय और बंधन मोह है। अतः सम्यक्त्व में अनंतानुबंधी कषाय का उदय नहीं रहता है तथा दर्शन मोहनोय कर्म (मिथ्यात्व मोहनोय, मिश्र मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय) का उदय भो नहीं रहता । परन्तु क्षयोपशम सम्यक्त्व में सम्यक्त्व मोहनोय (दर्शन मोहनीय कर्म की एक प्रकृति ) कर्म का प्रदेशोदय रहता है, वह सम्यक्त्व में बाधक नहीं बनता। युगप्रधान आचार्य तुलसी ने कहा है -
अनंतानुबंधिचतुष्कस्य दर्शनमोहनीयत्रिकस्य चोपसमे-औपशमिकम् (सम्यक्त्वम् ) तत्क्षये क्षायिकम् , तन्मिश्रे च झायोपशमिकम् । xxxi
-जैन सिद्धांत दीपिका प्रकाश शसू ४ अर्थात् अनंतानुबंधी चतुष्क और दर्शन मोहनीय त्रिक-सम्यक्त्व मोहनीव, मिश्र मोहनीय एवं मिथ्याख मोहनीय-इन सात प्रकृतियों के उपशांत होने के कारण होनेवाली सम्यक्त्व को गोपशमिक तथा इनका क्षय होने से प्राप्त होनेवाली सम्यक्त्व को क्षायिक एवं इनका क्षायोपशमिक होने से प्राप्त होने वाली सम्यक्त्व को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। युगप्रधान आचार्य तुलसी ने कहा है
मिथ्यात्विनां ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्योऽपिबोधो मिथ्यात्वसहचा. रिस्वात् अज्ञानं भवति । xxx। यत्सुनानाभावरूपमौदयिकमज्ञानं तस्य नात्रोल्लेखः। मनःपर्यायकेवलयोस्तु सम्यगृष्टिष्वेव भावात् , अज्ञानानि त्रीणि एव ।
-जैन सिद्धांत दीपिका प्र. २ स २१
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