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________________ [ १३१ ] को अपेक्षा) तथा मति आदि तीन अज्ञान ( मिथ्यादृष्टि वा सम्यमिथ्यादृष्टि को अपेक्षा ) भजनासे होते हैं। आगम में विशिष्ट बाल तपस्वी के लिए भावितात्मा अणगार का भी व्यवहार हुआ है। उस भावितात्मा अणगार को वीर्यलग्धि, वैक्रियलब्धि के साथ विभंग जानलम्धि उत्पन्न होती है ; जैसा कि कहा है____ अणगारेणं भंते ! भावियप्पामायी, मिच्छादिट्ठी, वीरियलद्धीए, वेउवियलद्धीए, विभंगणाणलद्वीए वाणारसिं णयरिं समोहए, समोहणित्ता रायगिहे णयरे रूवाई जाणइ, पासइ ? हंता जाणइ, पासइ । ___भग० श ३। उ ६। सू २२२ अर्थात राजगृह में रहता हुआ मिथ्यादृष्टि और मायी भावितात्मा अणगार वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाणारसी नगरी को विकुर्वणा करके वह उन लों को जानता है, देखता है। जब भवसिद्धिक मिथ्यात्वी शुभ अध्यवसाय, शुभपरिणाम, शुभलेषयादि से सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है तब उसके अज्ञान को ज्ञान कहा जाता है परन्तु अज्ञान नहीं। पंचसंग्रह में चन्दषिमहतर ने कहा है"सम्मत्तकारणेहिं । मिच्छनिमित्ता च होंति उवउगा। पंचसंग्रह भाग १॥ पृ० ३७ टीका-सम्यक्त्वं कारणं येषां ते सम्यक्त्वकारणाः, तर्मतिज्ञाना दिमिरुपयोगैः सह मिथ्यात्वनिमित्ता मिथ्यात्वनिबंधना मत्यज्ञानादय उपयोगा भवन्ति । xxx। बहुवचनादवधिदर्शनेन च सह सम्यक्त्वनिमित्ता मिथ्यात्वनिमित्ताश्चोपयोगाःxxx। अर्थात् सम्यक्त्व के होने से मतिज्ञान आदि उपयोग का व्यवहार होता है सथा मिथ्यात्व के होने से मति अज्ञान आदि उपयोग का व्यवहार होता है। स्वभावगत-अभवसिद्धिक जीव कभी भी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकेंगे अतः उनके लिए ज्ञान का व्यवहार नहीं हुआ-जैसा कि कहा है अभवसिद्धियाणं पुच्छा। गोयमा! नो णाणी, अण्णाणी; तिण्णिअण्णाई भयणाए। भग० श ८। उ २। सू १३६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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