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________________ [ १३० ] भव्यानामेव सम्यग्दर्शनादिकं करोति नामव्यानाम्। _प्रज्ञापना पद १। सू । टीका अर्थात् भन्यों को हो सम्यगदर्शनादि की प्राप्ति होती है लेकिन अभव्यों को नहीं । यद्यपि मरुदेवी माता को सभ्यगदर्शन की प्राप्ति अनेक वर्षों के बाद हुई थी-जन्म के समय उनके मिथ्यात्व था। वह सरल प्रकृति की पो। परिणामों की विशुद्धि से सम्यगज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यगचारित्र को प्राप्त किया । भगवान ऋषभदेव के द्वारा तीर्थ उत्पत्ति नहीं हुई उसके पूर्व ही आपने सर्व कर्मों का क्षय कर मोक्ष पदार्पण किया। ' भरतचक्रवर्ती ने अंतपुर में परिग्रह रहित होकर केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न किया। कहा है - "मारहितो भरतश्चक्रवर्ती सान्तःपुरोऽप्यादर्शकगृहे वतिष्ठमानो निष्परिग्रहो गीयते, अन्यथा, केवलोत्पादासंभवात् । प्रज्ञापना पद १। सू १६ टीका अर्थात् मूछी रहित होकर भरतचक्रवर्ती ने आरिसा भवन में केवलज्ञान उत्पन्न किया। मिथ्यात्वी के कर्मों के क्षयोपशम से वादलन्धि, बैक्रियल ब्धि तथा पूर्वगतश्रुत. लग्धि उत्पन्न होती है। देशोन दस पूर्वो की विद्या वह प्राप्त कर सकता है आगे नहीं ; क्योंकि दसपूर्वो का शान, चौदह पूर्वो का ज्ञान सम्यगदृष्टि को ही हो सकता है। इसके विपरीत भवसिद्धिक जीव सम्बगदृष्टि भी होते हैं और मिष्पादृष्टि मी, सम्यगमिथ्याडष्टि भी। अतः भवसिद्धिक जीव ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। आगम में कहा है भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किंणाणी अण्णाणी ? गोयमा पंच नाणाइ तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । भग० श ८। उ २॥ सू० १३५ अर्थात् भवसिद्धिक जीवों को मति आदि पांच ज्ञान (सम्यग्दृष्टि भवसिद्धिक १ -तीर्थस्यानुत्पादेसिद्धामरुदेवीप्रभृतयः । -प्रज्ञापना पद १। सू २ टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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