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संजरा - ओदइए, उवसमिए, खइए,
छव्विधे भावे पण्णत्ते, खओवसमिए, पारिणामिए, खण्णिवातिए ।
-ठणांग ठाणा ६ सू १२४ - अणुओगदाराइ सू २३३
अर्थात् भाव के छः भेद होते हैं, यथा - औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सन्निपातिक । सन्निपातिक भाव संयोग विशेष से बनता है ।" अतः भाव के पांच भेद प्रधानतः हैं ।
उपर्युक्त पाँच भावों में से मिथ्यात्वों के तीन भाव ओमिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक होते हैं । वेद्य अवस्था को उदय कहते है अर्थात् उदीरणाकरण के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से आठों कर्मों का जो अनुभव होता है, उसे उदय कहते है । उदय के द्वारा होने वाली आत्म-अवस्था को Refer भाव कहते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने कहा है
गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञाना संयता सिद्वत्वलेश्याश्चतुश्चतुस्त्र्ये
कैके केक षड्भेदाः ।
- तस्वार्थसूत्र अ २ सू ६
अर्थात् औदयिक भाव के इक्कीस भेद किये गये हैं – यथा – चारगतिनरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति ; चार कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ ; तीन लिंग - स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग; मिथ्यादर्शन अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व, छह लेश्या - कृष्ण, नील, कापोत, तेजो पद्म और शुक्ललेश्या ।
मिथ्यात्वी में औदयिक भाव के उपयुक्त इक्कीस भेद मिलते है । तेजो, पद्म और शुक्लेश्या के द्वारा मिथ्यात्वी के पुण्य का आस्रव होता है तथा पुण्य का आश्रव औदयिक भाव से होता है ।
घातिकर्म के विपाक वेद्याभाव को क्षयोपशम कहते हैं । क्षयोपशम से होने वाली आत्म-अवस्था को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । कहा है
१ सन्निपातो — मेलकस्तेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः ।
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- ठाण० ठाण ६ । सू १२४ टीका
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