SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १६६ ] मिथ्यात्वी के सापद्य बोर निरवध दोनों प्रकार की क्रिया लगती है। जो कियायें पाप कर्म के बंध की हेतु है ; वे सावध है तथा जो कियायें कर्मों का छेदन करने वाली हैं वे निरवद्य है। इन कर्मों के छेदन करने वाली फिवाओं को सदअनुष्ठान किया कहा गया है। जो मिथ्यात्वी सावध किया करते हैं उनके पापकर्म का बन्ध होता है सपा जो मिथ्यात्वी सदनुष्ठान किया करते हैं ; उनके कर्मों की निर्जरा होती है तथा पुण्यकर्म का बन्ध होता है।' शीलांकाचार्य ने कहा है सरिक्रया-यदि वा परसंबंध्यविचारितमनोवाक्कायवाक्यः सात्क्रयासु प्रवर्तते। -सूय श्रु २, अ४। सू १ टीका । अर्थात मन, वचन, काय की सद् प्रवृत्ति से सन्द्रिमा होती है । अतः मिष्यात्वी यथा शक्ति असक्रियाओं से निवृत होकर ज्ञान, तप विनय आदि सदनुष्ठान किया की आराधना करे; सदतिया से मिथ्यात्वी अध्यात्म पप की ओर अग्रसर हो। आगम का अध्ययन करने से यह परिज्ञात हुआ कि कतिपय मिथ्यात्वी-सफ़िया के द्वारा, उसो भव में सम्यक्त्व को प्रासकर, चारित्र ग्रहणकर, अन्त फिया कर सकते है। २: मिथ्यात्वी और भाव जीव की अवस्था विशेष को भाव कहते हैं। उदब, उपशम, क्षय, अयोपशम और परिणाम से निष्पन्न होने वाले भाष-अवस्थाएं जीव के स्वरूप है। सन्निपातिक भाव को और मिलाने से भाव के छह विभाग किये गये हैकहा है १ कियाकोश पृ० १८३, १८४ २ तत्र अन्तो भवान्तस्तस्य कियाऽन्तकिया भवच्छेद इत्यर्थः । -ठाणांग २।४।१०७१ टीका ३ भवनं भाषः पर्याय इत्यर्थः । -ठाण. ठाण। सू १२४-टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy