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( क्षायोपशमिकः ) ज्ञानचतुष्काज्ञानत्रिक दर्शनत्रिक चारित्र चतुष्कदृष्टित्रिक देशविर तिलब्धिपंचकादिरूपः ।
जैन सिद्धांत दीपिका प्रकाश २ सू ३५
अर्थात् चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, चार चारित्र ( यथाख्यात को छोड़कर ), तीन दृष्टि, देशविरति और पाँच लब्धियां ।
उपर्युक्त क्षायोपशमिक भाव में से मिध्यात्वी के निम्नलिखित क्षायोपशमिक भाव मिलते हैं, यथा- तीन अज्ञान, (मति श्रुत- विभंगअज्ञान ) तीन दर्शन, ( चक्षु - प्रचक्षु - अवधिदर्शन ) मिथ्यादृष्टि, दानादि पाँच लब्धियाँ ।
अपने-अपने स्वभाव में परिणत भाव को परिणाम कहते हैं तथा परिणाम से होने वालों अवस्था को अथवा परिणाम को पारिणामिक भाव कहते हैं ।' जीवत्व, भव्यत्व, अभव्य आदि पारिणामिक भाव हैं जो मिथ्यात्वी में होते ही हैं ।
अनुयोगद्वार सूत्र में औदयिक भावों में तथा क्षायोपशमिक भाव में "मिध्यादृष्टि" का उल्लेख किया है । कहा है
जीवोदयनिफन्ने अणेगविहे पन्नत्ते तंजहा -- x x x मिच्छादिट्ठी
XXXI
-- अनुयोगद्वार सू २३७
यहाँ 'मिध्यादृष्टि' को जोवोदय निष्पन्न भाव में उल्लेख किया है । यह 'मिथ्यादृष्टि' दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से निष्पन्न है । कहा है
खओवसमनिफन्ने अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा - XXX मिच्छादंसणलद्वी xxx |
- अनुयोगद्वार सू २४७
१ – परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्ट: । 21 स एव पारिणामिक इत्युच्यते ।
ठाण० ठाण ६ सू १२४ - टीका ।
मिथ्यादृष्ट्यादीनां त्रयाणामोदमिक क्षायोपशमिकपारिणामिक-प्रवचनसारोद्वार । गा १२६६ - टीका
२ - तत्र
कक्षणास्त्रयः
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