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________________ [ ११६ ] . अशुभक्रिया से मिथ्यात्वी को कायिकी, अधिकरणिकी, प्रादेषिकी, परितापनिकी और प्राणातिपातिकी-ये पांचों क्रियायें लगती हैं। चाहे मिथ्यात्वी हो, चाहे सम्यक्त्वी को अशुभ क्रिया से अशुभ कर्म लगते हैं। आगमों में कहा है' कि सम्यक्त्वी भी यदि महा आरम्भ-महापरिग्रह में आसक्त हो जाता है । तो सम्यक्त्व से पतित होकर नरक में उत्पन्न हो सकता है । कम किसी का बाप नहीं है। भगवान ने कहा दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आया णो केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए, संजहा-आरंभे चेव परिग्गहे चेव। दो ठाणाई अपरियाणेत्ता आयाणो केवलं बोधिं बुज्झज्जा, तंजहा-आरंभेचेव परिग्गहे चेव। -ठाण० स्था २। उ १। सू ४१, ४२ अर्थात बारंभ और परिग्रह में आसक्त मनुष्य केवलिप्ररूपित धर्म को नहीं सुन सकता, शुद्धबोधि-सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है अतः मिथ्यात्वी आध्यात्मिक विकास में अपना लक्ष्य बनाये। आरम्म परिग्रह को जाने तथा उसका यथाशक्ति प्रत्याख्यान करे जिससे उसे विशेष रूप से सकाम निर्जरा होगी। दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है फलस्वरूव अतत्त्व को तत्त्वं रूप में और तत्त्व को अतत्त्व रूप में मानता है । कहा है___ दसणमोहणिज्जस्म कम्मस्स उदएणं मिच्छत्त नियच्छति । -प्रज्ञापना पद २३॥ सू १६६७ जीव के परिणाम रूप निमित्त से पुद्गल कर्म के निमित्त से जीव भी उस रूप में परिणत होते हैं। ठाणांग सूत्र में कहा है १-दशाश्रुतस्कंध अ६ २-जीवपरिणामहेऊ कम्मत्ता पोग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मनिमित्त जीवो वि तहेव परिणमइ ।। -प्रज्ञापना पद २३॥ स १६६५ टीका Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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