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[ ११७ ] जीवकिरिया दुविहा पन्नत्ता, संजहा-सम्मत्तकिरिया चेव, मिच्छत्तकिरिया चेव।
-ठाणांग २। १ सू३ अर्थात् जीव क्रिया दो प्रकार की होती है- यथा सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्वक्रिया। तत्त्वश्रद्धान को सम्यक्त्व कहा जाता है उस जीव के व्यापार रूप होने के कारण को क्रिया लगती है वह सम्यक्त्व क्रिया है। मिथ्यात्व अर्थात तत्त्व का अश्रद्धान । यह भी जीव का व्यापार ही है अथवा सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन होने पर जो क्रिया होती है उसे क्रमशः सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया कहा जाता है।
जब मिथ्यात्वी मिथ्यात्व भाव को छोड़कर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तब उसके मिथ्यात्वदर्शन प्रत्यायिकी क्रिया नहीं लगती है। मिथ्यादर्शन क्रिया मिथ्या दृष्टि को होती है।' ज्ञान और क्रिया के द्वारा संसार रूपी अटवी का उल्लघन किया जा सकता है। मिथ्यात्वी सद्संगति में रहने का प्रयास करे। ज्ञान और क्रिया के मर्म को समझे। सिद्धांत साक्षी है कि सद्संगति के प्रभाव से गतकाल में अनन्त मिष्यावी-मिथ्यात्व भाव को छोड़कर, ज्ञान और क्रिया के द्वारा अनन्त संसार को परीत्त संसार कर अंततः सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए है।
यदि एक द्रव्य अथवा पर्याय में मिथ्यात्व होता है तो उसे मिथ्यादर्शन विरमण (संवररूप अवस्था) असंभक है । प्राचार्य मलय गिरि ने कहा है
सूत्रोक्तस्यैकस्याप्यरोचनादक्षरस्य भवतिनरः । मिथ्यादृष्टिः सूत्र हि न प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥
-प्रज्ञापना पद २२। स १५८० टीका। अर्थात सूत्र में कपित एक भी अक्षर की अरूचि होने से मनुष्य मिष्यादृष्टि होता है क्योंकि जिनेश्वर द्वारा कथित सूत्र प्रमाणभूत है-यथार्थ है । यदि मिथ्यात्वी मिथ्यात्व से निवृत होकर सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है लेकिन
१-प्रज्ञापना पद २२ सू १५९५ टीका २-ठाणांग २, १, ६.
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