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[ १०७ ] मिथ्यादृष्टि सक्रिया के प्रभाव से सबसे ऊपर के ग्रेवेयक देवलोक में उत्पन्न हो सकता है । आचार्य मलयगिरि ने कहा है
तस्मान्मिथ्यादृष्टय एवाभव्याभव्या वा श्रमणगुणधारिणो निखिलसमाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिंगधारिणोऽसंयतभव्यद्रव्यदेवाः प्रत्तिपत्तव्याः, तेऽपीहाखिलकेवलक्रियाप्रमावत उपरितनप्रैवेयकेषूत्पचन्त एवेति, असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात् ।
-प्रज्ञापना पद २०। सू० १४७०। टीका मिथ्याष्टि भव्य अपवा अभव्य जीव श्रमवत्वकी पीय रूप सर्व समाचारी को स्वीकार किया लेकिन सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सके । क्रियायुक्त द्रव्यलिंग को धारण करने वाले वे मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व रहित सक्रिया के प्रभाव से उत्कृष्टतः नववें वेयक में उत्पन्न हो जाते हैं। यद्यपि उनके चारित्र रूप संवर नहीं होता है क्योंकि सम्यक्त्व को अभी स्पर्शन नहीं किया है।
चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्वी जोव होते हैं, मिथ्यात्वी नहीं। शान की अपेक्षा से वह बाल नहीं माना जाता, आचरण की अपेक्षा से बाल माना जाता है, आगम में कहा है--- ___ अविरई पडुच्च बाले आहिजई, विरई पडुच्च पंडिए आहिज्जइ, विरयाविरयं पडुच्च बाल-पंडिए आहिज्जा।
-सूत्रकृतांग श्र२। अ२, स ७५ अर्थात् अविरत भाव की अपेक्षा से बाल, विरत भाव की अपेक्षा से पंडित, विरताविरत भाव को अपेक्षा से बालपंडित कहते हैं । सम्यगज्ञान दर्शन होते हुए भी आचरण अनियन्त्रित होने के कारण आचार-व्यवहार में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवों को भी 'बाल' शब्द से अभिहित किया है । 'बाल' में प्रथम चार गुणस्थानवर्ती जोवों का समावेश हो जाता है क्योंकि उनमें किसी के भी त्याग-प्रत्याख्यान (संवर) नहीं है । भगवती सूत्र के टीकाकार आचार्य अभयदेव ने कहा है--
'एकान्त बालो मिथ्यादृष्टिः, अविरतो वा। xxx बालत्वे समानेऽपि अविरत सम्यग्दृष्टिर्मनुष्यो देवायु प्रकरोति ।
-भगवती श । उ ८। सू ३५६-टीका
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