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________________ [ १०६ ] लेश्या की विशुद्धि से मिथ्यात्वी को जातिस्मरणज्ञान, विभंगज्ञान आदि उत्पन्न होते हैं ।" मिथ्यात्वी सद् क्रिया के द्वारा सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर यदि शुभलेश्या में काल प्राप्त होता है तो वह परभव में सुलभ बोधि होता है । यदि हठाग्रह में फंस कर, मिथ्यादर्शन में रत होकर कृष्ण लेश्या में काल प्राप्त होता है तो वह परमवमें दुर्लभ बोधि होता है । मिथ्यादृष्टि अभवसिद्धिक में भी छम लेश्यायें होती है ।" देवेन्द्रसूरि ने कहा है — किव्हा नीला काऊ, --- तेऊ - चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा १३ । पूर्वार्ध अर्थात् भव्यसिद्धिक तथा अभव्यसिद्धिक जीवों में छों लेश्यायें होती हैं । यदि मिध्यात्वी के प्रशस्त लेश्याओं से कर्म नहीं कटते तो भगवान ऐसा नहीं कहते पहा य सुक्क भव्वियरा तम्हा एयासि लेखाणं, अणुभावे वियाणिया । अप्पसत्थाओ वज्जित्ता, पसत्थाओ हिट्टिए मुणि । (१) लेश्याकोश २६६,१७ (२) लेपयाकोश पृ० २०१ (३) लेपयाकोश १० २६५, २६६ Jain Education International 2010_03 अर्थात् लेश्याओं के अनुभावों को जानकर संयमी मुनि अप्रशस्त लेश्याओं को छोड़कर प्रशस्त लेश्या में अवस्थित हो विचरे । मिथ्यादृष्टि गर्भस्थ जीव भी अप्रशस्त लेषणाओं में मरण प्राप्त होकर नरक में उत्पन्न हो सकता है | इसके विपरीत प्रशस्त लेश्याओं में मरण प्राप्त होकर देवलोक में उत्पन्न हो सकता है । कतिपय मिथ्यादृष्टि को गर्भस्थ में भो वीर्यलब्धि आदि लब्धियाँ उत्पन्न हो जाती है । लब्धियों की उत्पत्ति कर्मों के क्षयोपशम विशेष से होती है । गर्भस्थ मिध्यादृष्टि जीव सद्अनुष्ठानिक क्रियाओं से देवगति तथा मनुष्य गति में उत्पन्न हो सकते हैं । 1 - उत्तराध्ययन० ३४ ६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002577
Book TitleMithyattvi ka Adhyatmik Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1977
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size14 MB
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