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[ १०४ ] ५ : मिथ्यात्वी और आयुष्य का बंधन मिध्याहृष्टि अपने आयुष्य को समाप्त कर निम्नलिखित स्थानों में उत्पन्न होते है
(१) तियंच में सर्वत्र, (२) नारकी में सर्वत्र, (३) मनुष्य में-कर्मभूमिन, अकर्मभूमिज तथा अंसर्दीपज मनुष्यों में और (४) देव में-पांच अनुत्तरविमान वासी देवों को छोड़कर अन्य देवों में। अशुभ कर्मों के कारण तिर्यच-नारकी में उत्पन्न होते हैं, शुभ कर्मो के कारण मनुष्य-देवों में उत्पन्न होते है। मायो मिथ्याडष्टि जीव उत्कृष्टतः नववे नवेयक तक उत्पन्न हो सकते है। कहा है
माया-तृतीयः कषायः साऽन्येषामपि कषायाणामुपलक्षणं माया विद्यते येषां ते मायिनः उत्कटराग-द्वेषा इत्यर्थः ते च ते मिथ्यादृष्टयश्चमायिमिथ्यादृष्टयस्तथा रूपा उपपन्नका-मायि उपपन्ना मायिमिध्यादृष्ट् युपपन्नकास्तविपरीता अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकाः, इह
मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकग्रहणेन नवमवेयकपर्यन्ताः परिगृह्यन्ते . xxx
-प्रज्ञापना पद १५॥ उ । सू६६८-टीका अर्थात् मायी मिथ्यादृष्टि अर्थात् माया-तीसरी कषाय है और वह अन्य कषाय का उपलक्षण है। वह जिसके हैं -ऐसा माथी उत्कृष्ट रागद्वेष वाला मिथ्यादृष्टि । मायी मिथ्यादृष्टि नववे वेयक तक उत्पन्न हो सकता है ।
यदि मिथ्यादृष्टि जीव माया-कषाय में अनुरंजित हो जाता है तो वह तियंचगति में उत्पन्न होता है-कहा है
"माइमिच्छादिहि, त्ति मायावतो हि तेषु प्रायेणोत्पद्यन्ते, यदाह · शिवशर्माचार्यः
"उम्मग्गदेसओ मग्गनासो गूढहिययमाइल्लो ।
सठसीलो य सम्रल्लो तिरिया बंधई जीवो ॥१॥ ततस्ते मायिन उच्यन्ते, अथवा माया इह समस्तानन्तानुवन्धि
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