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[ १०३ ] धर्म नहीं है, क्योंकि तप को मोक्षमार्ग का' और धर्म का विशेषण बतलाया गया है। प्रवचन सार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा हैउवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्य संचयं जादि ।
-प्रवचनसार अ २०६४ अर्थात् शुभ उपयोग से पुण्य का संचय होता है । जीव के निरवद्य भोग का प्रवर्तन होता है तो उसके शुभ पुद्गलों का बन्ध होता है। शुभ योग, शुभ भाव, शुभ परिणाम, शुभ उपयोग–ये सब एकार्थवाची है। आचार्य भिक्षु ने नव पदार्थ की चौपई ( पुण्य पदार्थ ) ढाल २ में कहा है
ठाम ठाम सुतर में देखली रे लाल, निरजरा ने पुनरी करणी एक हो। पुन हुवे तिहां निरजरा रे लाल, तिहां जिन आगनां छै विशेष हो ।। ५६ ।।
-भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर भाग ११ पृ० १६ अर्थात् स्थान-स्थान पर सूत्रों में देखकर निर्णय करो कि निर्जरा और पुण्य की करणी एक है। जहाँ निर्जरा होती है वहां विशेष रूप से जिनामा है। अस्तु मिथ्यात्वी के शुभयोग से पुण्य का बन्ध और निजरा दोनोंहोते हैं।
१-नाणं च दंसणं चेष, चरित्तं च तवो तहा । एयं मग्गु ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदं सिहिं ।।
उत्त० २८१ २-धम्मो मंगल मुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो।
-दसवै० अ १। गा १ ३-शुभयोग एवं शुभकर्मण आस्रवः पुण्यबन्धहेतुरिति ।
-जैन सिद्धान्त दीपिका ४।२८ यत्र शुभयोगस्तत्र नियमेन निर्जरा।
-जैन० प्रकाश ४.२६
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