________________
[६३ ] अर्थात् मिध्वादृष्टि में मनुष्य, पशु आदि को जानने की अविपरीत दृष्टि होती है, अत: मिथ्यादृष्टि का गुणस्थान बतलाया गया है। क्योंकि ऐसा कोई भी आत्मा नहीं है, जिस के क्षयोपशम जन्य थोड़ी भी विशुद्धि न हो और दूसरों की तो बात ही क्या, अभव्य एवं निगोद के जीवों के भी वह विशुद्धि होती है और यह स्वीकार किये बिना उन मिथ्यात्वियों में और अजीव में कोई अन्तर ही नहीं रहता।
मिथ्यात्वी के सक्रिया से आत्मा को विशुद्धि होती है, कर्मो की निर्जरा के बिना आत्मा को विशुद्धि नहीं होती है । सेन प्रश्नोत्तर, योगशास्त्र, तत्वार्थभाष्य वृत्ति, जैन सिद्धान्त दोपिका आदि ग्रन्थों में भी मिथ्यात्वो के सकाम तथा अकाम दोनों प्रकार की निर्जरा का उल्लेख किया गया है ।
सक्रियाओं का आचरण करने से मिथ्यात्वी के कर्मो का गाढ़ बंधन नहीं होता है, उसके क्रोध-मान माया-लोभ पतले पड़ जाते है। मिथ्यात्वी के शुद्ध पराक्रम-शुद्ध आचरण-शुद्ध क्रिया से जैसे-जैसे निर्जरा होती है, वैसे-वैसे कर्मों का क्षय होता जाता है। कर्मों का क्षय होते-होते वह सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है । आचार्य भिक्षु ने मिथ्यात्वी की निर्णय की ढाल ४ में कहा है :मिथ्याती निरवद करणी करें, तिणरे निरजरा कही जिनराय । तिण माहे संक म राखजो, जोवों सूतर रें मांय ॥१॥ मिथ्याती आछी करणी कीयां बिना, किणविध पामें समकत सार । सुध प्राक्रमसूसमकत पांमसी, तिणमें संका म राखो लिगार ॥२॥ धूर सू तो जीव मिथ्याती थकां, सुणे साधां री बाण । ग्यांन समकत पाय साधां कने, अनुक्रमें पोहचें निरवाण ॥३॥ सुणीयां सू समकत पांमसी, इणमें कूड नहीं लवलेस ॥६॥ जो मिथ्याती री करणी असुध हुवे, बले असुध प्राक्रम हुयै ताय । जब सुणयोइ तिणरो असुध हुवै, तो उ समकती कदेय न थाय ॥८॥
-भिक्ष ग्रन्थ रत्नाकर भाग १, पृ० २६६ अर्थात् मिथ्याती के शुद्ध क्रिया से कर्म कटते हैं, वह शुद्ध लेश्या, पराक्रम आदि से सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है ।
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org