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[ १२ ] प्रत्यक्ष देखे जाते हैं, अतः यह बाह्य तप कहलाता है । लोक व्यवहार में भी देखा जाता है कि इस बाह्य तप का आचरण मिध्यात्वी भी करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र की (तीसवें अध्ययन की) चतुदर्श सहस्री टीका के अनुसार षडविध बाह्य तप का सेवन मिथ्यादृष्टि भी करते हैं, परन्तु सम्यगदृष्टि की सकाम निर्जरा की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि की सकाम निर्जरा स्तोक-कम है।
भगवती सूत्र में शतक ८/उ०१०में कहा गया है कि बालतपस्वी ने मोक्षमार्ग की आंशिक आराधना की है, क्योंकि वह सम्यग ज्ञान रहित तथा क्रिया सहित है और वल्कल चौरादि की तरह स्तोक कर्मों की निर्जरा से उसे मोक्ष की प्राप्ति (उस बालतपस्वी अवस्था में) नहीं होती है । कहा गया है कि जिस बुद्ध ज्ञानी के संपूर्णरूप से आश्रव का निरोध हो जाता है, वह समभाव-भावितात्मा मोक्ष को प्राप्त करता है । तथापि मिथ्यात्वी जीव के अनुकंपा, सकाम निर्जरा, अकाम निर्जरा, (बालसप) दान, विनय आदि शुभ अनुष्ठान होते हैं।
अस्तु सम्यग्दृष्टि होने मात्र से उसको सभी क्रियाएं शुद्ध नहीं होती। इसी प्रकार मिध्यादृष्टि की सभी क्रियाएँ अशुद्ध नहीं होती। सम्यग्दृष्टि भी असद् क्रिया करता हुआ संसार को बढ़ाता है और मिथ्यादृष्टि भी सद् क्रिया करता हुआ संसार को कम करता है। इसके भी कर्मनिर्जरण होता है। श्री मज्जयाचार्य ने भ्रमविध्वंसनम ग्रन्थ में कहा है --- ___ "जे मिथ्यात्वी गाय ने गाय श्रद्धे, मनुष्य ने मनुष्य श्रद्ध, दिन ने दिन श्रद्ध, सोना ने सोना श्रद्ध-इत्यादि जे संवली श्रद्धा छै ते क्षयो. पशम भाव छै।"
-मिथ्यात्वी क्रियाधिकार पृ० २८ युगप्रधान आचार्य तुलसी ने जैन सिद्धान्त दीपिका में कहा है--
"मिथ्यादृष्टौ मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्तिर विपरीता समस्त्येवेति तद् गुणस्थानम् , किश्च नास्त्येताहक कोऽप्यात्मा, यस्मिन् ।क्षयोपशमादिजन्या नाल्पीयस्यपि विशुद्धिः स्यात, अभव्यानां निगोदजीवानामपि च तत्सद्भावात्, अन्यथाजीवत्वापत्त ।" ।
-जैन० प्रकाश ८३ टीका
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