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१४ ] अस्तु, जिनाज्ञा के अन्तर्गत करणी-क्रिया करने से मिथ्यात्वी के निर्जरा के साथ-साप पुण्य का भी बंध होता है । आज्ञा के बाहर की क्रिया से अशुभ कर्म का क्षय नहीं होता तथा शुभकर्म-पुण्यकर्म का बंध नहीं होता है ।' श्रीमज्जयाचार्य ने ३.६ बोल की हुन्डी में-दूसरी ढाल में कहा है
जिण आगन्यां माहिली करणी करै। शुभजोग वर्ते तिण वार ।। तिहाँ कर्म कट पुण्य निपजै । देखो सिद्धान्त . मझार ।। शुभकर्म बंधै जीव रे। ते आज्ञा माहिली स जाण ॥ ठाम ठाम सिद्धान्त में जिण कहयो। ते सुणज्यो समता आण ॥ केई अज्ञानी इम कहै आज्ञा बाहरली करण स्पुण्य ।। त्यां ने खबर नहीं जिण धर्म री । त्यांरी जाबक बात जबून्य ।
-३०६ वोलकी हुंडी अर्थात् पुण्य का बंध शुभयोग से होता है-शुभयोग-निरवद्यानुष्ठान होने से जिन आज्ञा के अन्तर्गत की क्रिया है। यदि कोई मिथ्यात्वी त्याग-प्रत्याख्यान किये बिना ही हिंसा करने से भय रखता है, हिंसा अरने से संकुचाता है, वहाँ उसके निर्जरा अवश्यमेव होगी, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति प्रशस्त अध्यवसाय में प्रवर्तन कर रही है। इसका स्पष्टिकरण आचार्य भिक्षु ने अनुकम्पा की चौपई को नवमी ढाल में इस प्रकार किया है -
१-शुभं कर्म पुण्यम्-शुभ कर्म सात-वेदनोयादि पुण्यमभिधीयते । उपचाराच्च यद्यग्निमित्तो भवति पुण्यबंध, सोऽपि तत्-तत् शब्दवाच्यः, ततश्च नवविधम् ।
-जैन सिद्धांत दीपिका ४-१३
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