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[ ८६] लाभ नहीं होता ? यदि इस दृष्टिकोण की तपस्या एक मात्र जिन आज्ञा के बाहर होती तब तो उस तपस्या को भी एकमात्र सावध गिना जाता । यहाँ 'सक कि उस तपस्या को अकाम-निर्जरा के अन्तर्गत भी नहीं गिना जाता है । परन्तु आचार्य भिक्षु ने इस श्रेणी की तपस्या को अकाम-निर्जरा में सम्मिलित किया है । अकाम-निर्जरा को आचार्य भिक्षु ने निरवद्य क्रिया में स्वीकृत किया हैजैसा कि आपने नव पदार्थ की चौपई में-पुन्य पदार्थ को ढाल-२ में कहा है
पाले सराग पणे साधूपणो रे लाल, वले श्रावक रा वरत बारै हो। बाल तपसाने अकाम निरजरा रे लाल, यां सू पामे सुर अवतार हो। ते करणी निरवद जाण हो ॥ २६ ॥
--पुण्य पदार्थ की ढाल २, गा २६ - अर्थात् सराग संयम का पालन करने से, श्रावक के बारह व्रतों का पालन करने से, बालतप से तथा अकाम निर्जरा से जोव देवगति में उत्पन्न होता है । उपयुक्त चारों कारण ( जिसमें अकामनिर्जरा भी समाविष्ट है ) निरवद्य हैं । मिथ्यावियों के तप को बालतप कहा जाता है। आगे देखिये आचार्य भिक्षु ने मिथ्यात्वी को निरवद्य क्रिया की अपेक्षा से मिथ्याती री करणी री चौपई ढाल--३ में कहा है--
शील पालें मिथ्याती वैराग्यसू रे, तपस्या करै वैराग्यस्यू ताय रे हरियादिक त्यागै वैराग्यस्यू, तिणरें कहे दुर्गति नो उपाय रे ॥२६॥ इत्यादिक 'निरवद करणी करें रे वेंराग मन मैं आण रे तिणरी करणी दुर्गति नो कारण कहे रे लाल ते जिण मारग रा अजाण रे ॥३०॥
-भिक्ष-प्रन्थ रत्नाकर भाग १, पृ० २६५
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