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[ ८८ ] अहिंसा और तप धर्म को बराधना कर सकता है । यहाँ संयम का सम्बन्ध संवर से जुड़ जाता है, मिथ्यात्वी के संवर व्रत की प्राप्ति नहीं होती। कारण को कार्य मान कर उपचार से तप को निर्जरा भी कहते हैं।' ठाणां के टीकाकार ने कहा है
"एगा निजरा' निर्जरणं निर्जरा विशरणं परशटनमित्यर्थः, सा चाष्टविधकर्मापेक्षयाऽष्टविधाऽपि द्वादशविधतपोजन्यत्वेन द्वादशविधाऽपि अकामक्ष त्पिपासाशीतातपदंशमशकमलमहनब्रह्मचर्यधारणाधनेकविधकारणजनिततत्त्वेनानेकविधाऽपि । xxx। इतिच जीवो विशिष्टनिर्जराभाजनप्रत्येकशरीरावस्थायामेव भवति न साधारणशरीरावस्थायामतः।
-ठाण स्था १ । उ १ । सू १६ । टीका अर्थात् निर्जरा के द्वारा विशेष कर्मों का परिशाटन होता है । आठ प्रकार के कर्मों के क्षय होने की अपेक्षा निर्जरा के आठ प्रकार हैं तथा अनशनादि बारह प्रकार के तपों से उत्पन्न होने से निर्जरा के बारह भेद हैं । इच्छा के बिना क्षुधा, तृषा, शीत, ताप, दंशमशक (मच्छर ) मलका सहन करना ब्रह्मचर्यादि का पालन करना आदि अनेकविध कारण होने से निजरा अनेक प्रकार की है । अथवा द्रव्यतः वस्त्रादि का नाश होना और भावत: कर्मो का नष्ट होना-ये दो प्रकार भी निर्जरा के हैं तो भी सामान्यतः निर्जरा एक ही है । विशिष्ट निर्जरा का भाजन प्रत्येक शरीरी जीव ही हो सकता है लेकिन साधारण शरीरी नहीं।
अस्तु जन दर्शन यह नहीं कहता है कि तुम इहलोक व परलोकादि के लिए तपस्या करो, परन्तु यदि कोई व्यक्ति चाहे सम्यक्त्वी हो, चाहे मिथ्यात्वी हो, इहलोकादि के लिए-भौतिक सुखों के लिए तपस्या करता है तो तपस्या को जिन आक्षा के बाहर नहीं कहा जा सकता। यह मानना पड़ेगा कि उसका दृष्टिकोण गलत है, दृष्टिकोण के गलत होने पर क्या तपस्या का कुछ भी १-कारणे कार्योपचारात्तपोऽपि निर्जरा शब्दवाच्यं भवति
-जैनसिद्धांतदीपिका प्रकाश ५
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