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निगोद से मरण को प्राप्त कर केले के रूप में उत्पन्न हुई फिर वहां से अनन्तर भव में 'मरुदेवी, के रूप में उत्पन्न हुई। यदि मरुदेवी माता ने अपने पूर्व भव में की गई अकाम निर्जरा से आत्मा की उज्ज्वलता नहीं होती तो उनके कैसे इतने गाढ़ पुण्य का बंध होता ।
अस्तु लक्ष्य के शुद्ध होने पर अर्थात् निर्जरा के लिए यदि मिथ्यात्वी सद्अनुष्ठानिक क्रियाएं करते हैं तो उसका लाभ बहुत ऊँचा होता है । इसके विपरीत लक्ष्य के सम्यग् नहीं होने पर अर्थात् परलोक के लिए, इहलोक के लिए, कीति-यज्ञादि के लिए सद् अनुष्ठानिक क्रियाएं करते हैं तो वहाँ अकाम निर्जरा ही होगी तथा लाभ भी उसके अपेक्षा बहुत कम होगा लेकिन संपूर्ण रूप से उस क्रिया का लाभ ही नहीं मिले-यह हो नहीं सकता। निरवद्य क्रिया करने की भगवान की आज्ञा है । जैसा कि आचार्य भिक्षु ने कहा है
"आग्या में जिण धर्म जिनराजरो, आगना बारें कहें ते मूढरे । विवेक विकल शुध बुध विनां ते बुडेंछे कर कर रुढरे ।। ग्यान दर्शण चारित्र ने तप, एतो मोखरा मारग च्यार रे। यां च्यांरा मे जिणजीरी आगनां, यां बिना नहीं धर्म लिगाररे ॥
-जिनग्या री चौपई-ढाल १, गा २, ३ अर्थात् जिनेश्वर देव का धर्म-आज्ञा में है उपयुक्त मोक्ष के चार मार्गो में से मिथ्यात्वी केवल 'सप' धर्म का अधिकारी माना गया है-यदि वह तप धर्म की आराधना करे तो-ऐसा सिद्धांत में कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है
"खवेत्ता पुवकम्माई, संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणो।
-उत्त० २८। गा ३६ अर्थात् संयम और तप से पूर्व सिंचित कर्मों का क्षय होता है । दसवै. कालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन में धर्म के तीन विभागों का उल्लेख मिलता हैअहिंसा, संयम और तप। इन तीन प्रकार के धर्मों में मिथ्यात्वी यथाशक्ति
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