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[१०] अर्थात जो मिथ्यावी को निरवद्य करणो-(शील पालन करना, हरी साग-सब्जी का प्रत्याख्यान करना आदि) को दुर्गति का कारण कहता है, वह जिन-आज्ञा का अजानकार है। अर्थात् वह जिन आज्ञा के मर्म को नहीं जानता है। जो जिनेश्वरदेव को आज्ञा के कार्य में एकांत रूप से अधर्म कहता है ; वह मंदबाल अज्ञानी है तथा वह अपने तीव्र कर्मों के कारण दक्षिणगामी नारकियों में उत्पन्न हो सकता है तथा उसे बोधि की प्राति होनी दुर्लभ है।
सम्यक्त्व के बिना संवर नहीं होता है-ऐसा आगम के अनेक स्थल पर उल्लेख है, परन्तु सम्यक्त्व के बिना निर्जरा नहीं होतो है ऐसा आगम में कहीं भी उल्लेख नहीं है । अतः मिथ्यात्वी के सद्-अनुष्ठान से निर्जरा अवश्यमेव होती है । श्रीमज्जयाचार्य ने भ्रमविध्वंशनम् में कहा है
"अकाम शील तप उपसांत पणो ए करणी ना धणी ने परलोक ना आराधक न थी, इम कहा। ते पिण सर्व थकी आराधक न थी। पर निर्जरा आश्री देश आराधक तो ते छ।"
__--मिथ्यात्वी क्रियाधिकार, पृ० २५ अर्थात यदि मिथ्यात्वी-अकामनिर्जरा, शील, तप आदि सक्रिया का आचरण करता है तो उसे सम्पूर्ण अराधना की दृष्टि से अनाराधक कहा है, लेकिन निर्जरा को अपेक्षा से देशाराधक कहा है। आगे फिर देखिये कि श्रीमज्जयाचार्य ने भ्रमविध्वंसनम में क्या कहा है
"जे बालतप, अकामनिर्जरा ने आज्ञा बाहिरे कहे तेहने लेखे सरागसंयम, संयमासंयम, पिण आज्ञा बाहिरे कहणा। अनें जो सरागसंयम, संयमासंबम ने आज्ञा में कहे तो बालतप, अकामनिर्जरा ने जिण आज्ञा में कहणा। ए बालतप, अकामनिर्जरा, शुद्ध आज्ञा मांहि छै ते सरागसंयम संयमासंयम रे भेला कह या (देवगति के बंधन के कारणों में ) ते अशुद्ध होवे तो भेला न कहिता।"
-मिथ्यात्वी क्रियाधिकार पृष्ठ ४३ सेन प्रश्नोत्तर के चतुर्थ उल्लास में कहा है.. ये चरकपरिव्राजकादिमिथ्यादृष्टयोऽस्माकं कर्मक्षयो भवत्विति धिया तपश्चरणाद्यज्ञानकष्टं कुर्वन्ति तेषां तत्त्वार्थभाष्यवृत्तिसमय
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