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[८३ ] अस्तु, मिथ्यात्वी का प्रथमगुणस्थान क्षायोपशमिक भाव है-आत्मा की पवित्र अवस्था है। क्षायोपामिक भाव उपादेय है, हेय नहीं है। क्षायोपशामिक भाव के कारण सम्यग्दर्शन की विविध दृष्टियाँ मिथ्यात्वी में विकसित हैं । वह अनेक-अनेक पदार्थों को यथार्थ रूप से पहचानता है। यह उसकी क्षायोपशमिक मिथ्यादृष्टि का ही परिणाम है । सम्यगहष्टि की तरह मिथ्यादृष्टि के भी मोक्ष के द्वार खुले हुए हैं, यदि विविध प्रकार की सअनुष्ठानिक क्रिया करते हैं तो । आचार्य भिक्षु ने मिथ्याती रो निर्णय की पहली ढाल में कहा है
केई परकत रा भद्रीक मिथ्याती, वले विनैवंत साधां रा ताहि । दया तणा परिणाम , चोखा, वले मच्छर नहीं तिणरा घट मांहि ॥ इण निरवद करणीरो निरणो कीजों ॥१॥ पेहले गुणठाणे दांन साधा ने देह ने। परत संसार कीधों छे जीव अनंत ॥ तिण दांन रा गुण देवतां पिण कीयां । ठाम-ठांम सूतर में कह्यों भगवंत ॥२४॥ निरवद करणी करें समदिष्टी। तेहीज करणी करें मिथ्याती ताम ॥ यां दोयां रा फल आछा लागें। ते सूतर में जोवों ठाम-ठाम ॥३६॥
-भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर-खण्ड १, पृ० २५५, २५७,२५८ अर्थात् अनंत मिथ्यात्वी निरवद्य क्रिया के द्वारा संसार परत किया है । मिथ्यात्वी जीव सुसंगति में रहकर उत्कृष्ट देशोन दस पूर्व-विद्या का पाठी हो सकता है। वे सुसंस्कारित मिथ्यात्वी कतिपय व्यक्तियों को सद् अनुष्ठानिक क्रियाओं का उपदेश देकर सही मार्ग को पकड़ा देते हैं। श्रद्धा के अर्थ में दर्शनका प्रयोग जैन दर्शन को जिस प्रकार से मान्य रहा है, उस प्रकार से अन्यत्र कम मिलता है। यह गौरव का विषय है कि विभिन्न भारतीय धर्मों में श्रद्धा का का स्थान सर्वोपरि
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