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[ ८२ ] जिन-जिन वस्तुओं को सम्यग् जानता है, सम्बंग श्रद्धा है, वह उन वस्तुओं को क्षयोपशम से सम्यग् जानता है, सम्यग् श्रद्धता है ।
बालवीर्यान्तराय कर्म तथा मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से मिध्यात्वी के निर्जरा होती है तथा उसके द्वारा उसकी आत्मा अंशत: उज्ज्वल होती जाती है । वस्तुवृत्त्या मिथ्यात्वी के कर्मों का क्षयोपशम नहीं होता तो उनके कर्मों की निर्जरा भी नहीं होती । बिना कर्मों की निर्जरा किये, वे किस प्रकार सम्यक्त्व को प्राप्त करते ।"
घातिक कर्म आत्मा के मूल गुणों - ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि की घात करते है । आचार्य भिक्षु तेरह द्वार में ज्ञानावरणीय आदि कर्म के क्षयोपशमसे उत्पन्न होने वाले बोलों की संख्या ३२ गिनाई है उनमें से मिथ्यात्वी के निम्नलिखित १६ बोल मिलते हैं
"मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगअज्ञान, मनना- गुनना, चक्षुदर्शन , अचक्षु दर्शन, अवधिदर्शन, श्रोत्रेन्द्रिय आदि पाँच भावेन्द्रिय, मिथ्यादृष्टि, बालवीर्य तथा दानादि पाँच लब्धियाँ ।"
जैन सिद्धान्त दीपिका के रचयिता युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने ( प्रकाश ८३ में ) प्रत्येक मिथ्यात्वी के, यहाँ तक कि अभव्य और निगोद के जीवों में भी आत्मा की आंशिक उज्ज्वलता स्वीकार की है । नन्दी सूत्र में कहा है
अविसेसिया मई, मइनाणं च मई अन्नाणं च । विसेसिया समद्दिट्टिस्स मई मिच्छादिट्ठिस्स
मई
मइनाणं ।
मई
मइअन्नाणं ।
- नन्दी० सू ४५
अर्थात् साधारणतया मति हो मतिज्ञान एवं मतिअज्ञान है और उसके पीछे विशेषण जोड़ देने से उसके दो भेद होते हैं, जैसे सम्यग्दृष्टि की मति को मतिज्ञान और मिथ्यादृष्टि की मति को मतिज्ञान कहा जाता है ।
१ - नव पदार्थ की चौपड़, निर्जरा पदार्थ की ढाल, गाथा २६ से २६, ३१, ३५, ४०
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