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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
ऐसे मन्त्रों के जाप से मोह, इन्द्रिय लिप्सा, काम आदि कषायों का शमन, होता है और मनोजय, परीषहजय कर्म निरोध, कर्मनिर्जरा, मोक्ष तथा शाश्वत आत्मसुख भी प्राप्त होता है ।।
इससे सिद्ध होता है कि जैन योग साधना में मन्त्रजप का भी अत्यधिक महत्त्व है। योगसाधना और योगबिन्दु ।
प्रकृत रचना आचार्य हरिभद्रसूरि की अतीव उत्तम योगपरक रचना है। जैसे कि स्वयं आचार्य ने सर्वप्रथम सभी योग शास्त्रों से अविरुद्ध एवं सभी परम्पराओं के योग ग्रंथों के साथ समन्वय करते हए श्रेष्ठ योगमार्ग के दर्शक इस ग्रंथ को प्रस्तुत करने की अवधारणा अभिव्यक्त की है। अनन्तर योग के अधिकारी का उल्लेख किया है। जो जीव चरमावर्त में रहता है अर्थात् जिसका काल मर्यादित हो गया है जिसने मिथ्यात्व ग्रंथि का भेद कर लिया है और जो शक्लपक्षी है, वही योग साधना का अधिकारी है। इसके विपरीत जो अचरावर्त में स्थित है, वे मोहकर्म की प्रबलता के कारण संसार की विषय वासना और काम भोगों में आसक्त हैं। वे योग मार्ग के अधिकारी नहीं है। आचार्य ने उन्हें भवाभिनन्दी की संज्ञा से सम्बोधित किया है।
चारित्र के विषय में हरिभद्रसूरि ने पांच योग भूमिकाओं का वर्णन किया है। आत्मभावों का विकास करते हुए साधक चारित्र की तीन भूमिकाओं को पार करके चतुर्थ भूमि समता-साधना में प्रवेश करता हैं वहां क्षपक श्रेणी धारण करता है । इसी ग्रंथ में सूरि ने पांच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया है, वे हैं-विषम्, गर, अननुष्ठान, तद्धेतु और अमृत अनुष्ठान । इसमें प्रथम के तीन अनुष्ठान असत् हैं और अन्तिम के दो सदनुष्ठान हैं और योगसाधना के अधिकारी व्यक्ति सदनुष्ठान में ही अवस्थित होता है। १. वही, पृ० १४ २. सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन तत्त्वतः
सन्नीत्या स्थापकं चेव मध्यस्थांस्तद्विदः प्रति ॥ योगबिन्दु, श्लोक २ ३. चरमे पुद्गलावर्ते यतो यः शुक्लपाक्षिकः ।
भिन्नग्रन्थिश्चारित्री च तस्यैव वदुदाहृतम् ॥ वही, श्लोक ७२ ४. भवाभिनन्दिनः प्रायस्त्रिसंज्ञा एव दुःखिता।
के चिद्धर्म कृतोऽपि स्युर्लोकपंक्तिकृतादरा ॥ वही, श्लोक ८६
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