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परिच्छेद--द्वितीय योगबिन्दु के रचयिता :
आचार्य हरिभद्रसूरि (क) जैन सन्त हरिभद्रसूरि : एक परिचय
भारतवर्ष ऋषियों, मुनियों और महान् सन्तों की जन्म एवं तपोभूमि है। ये सभो त्यागमार्ग अपनाकर गहन आत्मचिन्तन और आत्मस्वरूप प्राप्ति के विभिन्न साधनों पर एकान्त में मनोमन्थन करते थे। उससे जो उपलब्धि उन्हें होती थी उसे वे अपने तक ही सीमित नहीं रखते थे अपितु लोककल्याण के लिए उसे लिपिबद्ध कर दुनियां के समक्ष प्रस्तुत करते थे।
ऐसे महापुरुषों की उस देन के लिए यह भारत भूमि सदैव उनकी ऋणी रहेगी। इन महापुरुषों में जैन सन्तों एवं आचार्यों का विशेष स्थान है। जैन सन्तों की प्रवृत्ति सदैव अपनी संस्कृति के अनुरूप 'जीओ और जीने दो' 'अहिंसा परमो धर्मः' के उच्च आदर्शों को आत्म सात कर लोकहित में प्रयत्नशील रही है।
प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक इन जैन सन्तों और आचार्यों ने भारतीय वाङमय के सजन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। सब प्रकार की पद-प्रतिष्ठा और स्वार्थ से मुक्त होकर इनकी लेखनी लोकहित में निरन्तर चलती रही है। ज्ञान-दर्शन और योगनिष्ठ इन आचार्यों ने अपने अनन्य काव्य सर्जन द्वारा जो भारतीय संस्कृति के भण्डार को अक्षय बनाया है, वह उनकी अक्षुण्य यशःकीति से सदैव गौरान्वित रहेगा। वे परम दिव्य, असीम आनन्द, मुक्तिपथ के समुद्बोधक, सर्वतो गरीयान और वरीयान् तत्त्व के पुरोधा और पुरस्कर्ता थे।
जैन आचार्यों ने प्रायः साहित्य की समस्त विधाओं पर अचूक लेखनी चलायी है और अपनी अद्वितीय साहित्यिक सर्जना से सरस्वती के
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