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________________ 44 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन भण्डार को मण्डित किया है, इन आचार्यों में प्रमुख हैं-आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, जिनसेन, सिद्धसेन, हरिभद्रसूरि, अकलंक, विद्यानन्द, शीलांकाचार्य, हेमचन्द्र, अभयदेव, जिनप्रभ, प्रभाचन्द्र एवं यशोविजय आदि । इन्हीं के महान् उपकार से इस राष्ट्र की संस्कृति अजर, अमर, अमल और धवल बनी हुई है। इन्हीं पुण्यात्माओं तथा तपःपूत शब्द' और भावों के अनन्य शिल्पी महान् साधकों में एक थे-हरिभद्रसूरि। जैनधर्म-दर्शन के क्षेत्र में एक समस्या प्रारम्भ से यह रही है कि एक ही नाम के अनेक आचार्य हुए जिन्होंने अपनी प्रतिभा से निष्पन्न शास्त्रों से सरस्वती के भण्डार को अक्षुण्य बनाया है। हरिभद्रसूरि के विषय में भी कुछ ऐसा ही है। इस नाम के एक परम्परा में एकाधिक आचार्य हुए हैं। अत: यह सिद्ध करना एक जिज्ञासू के लिए कठिन हो जाता है कि अमुक-अमुक रचनाओं के लेखक कौन से हरिभद्र हैं ? फिर भी जिन हरिभद्रसूरि की हम यहां चर्चा करेंगे, वे प्रख्यात प्रतिभा के धनी हरिभद्रसूरि समराइच्चकहा आर धूर्ताख्यान जैसे कथा ग्रंथों और अनेकान्तजयपताका, शास्त्रावार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय तथा योगबिन्दु आदि अनेक दार्शनिक ग्रंथों के रचयिता हैं। भारतीय वाङमय में हरिभद्रसूरि का साहित्यिक योगदान अतीव दिव्य, उत्तम और अनुपमेय है। प्राचीन साहित्यकार विशेषकर सन्तों की यह प्रवृत्ति रही है कि वे आत्मश्लाघा से सदैव दूर रहते थे। अपने सद्योद्वोधन तक में भी वे आत्मकथा का उल्लेख करने में संकोच करते थे। हरिभद्रसूरि भी इसके अपवाद नहीं हैं। इसी कारण उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का अनुसरण करके अपने विषय में कहीं भी कुछ नहीं लिखा। ऐसी परिस्थिति में किसी भी साहित्यकार के विषय में कुछ लिखने के लिए हम जैसों के समझ दा हो उपाय शेष रह जाते हैं और वे हैंआभ्यन्तर और बाह्यपक्ष। आभ्यन्तर से अभिप्राय उस प्रकार की सामग्री से है जिसका उल्लेख ग्रंथकार ने स्वयं अपनी रचनाओं में किया हो, और बाह्य पक्ष से अर्थ उससे लिया जाता है जो उनके परवर्ती आचार्यों अथवा कवियों Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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