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योगबिन्दु के रचयिताः आचार्य हरिभद्रसूरि
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द्वारा उनका गुणकीर्तन आदि किया गया हो अथवा उनकी रचनाओं की मूल सामग्री का अपनी कृत्तियों में यथोचित सदुपयोग किया गया हो परन्तु काव्य के क्षेत्र में ऐसा नहीं मिलता कि आचार्य ने अपनी पूर्व परम्परा का यत्किञ्चित् उल्लेख भी न किया हो । जो भी हो आन्तरिक पक्ष की अपेक्षा हरिभद्रसूरि के विषय में बाह्य पक्ष ही अधिक प्रबल रूप में मिलता है। जिन परवर्ती रचनाकारों ने अपनी कृतियों में उनका उल्लेख किया है अथवा उनकी प्रशस्ति गायी है, उनमें हैं--
१. दशवकालिक नियुक्ति टीका २. उपदेशपद की प्रशस्ति३. पंचसूत्र टीका ४. अनेकान्तजयपताका का अन्तिम अंश' ५. ललितविस्तरा ६. आवश्यकसूत्र टीका प्रशस्ति
उपर्युत ग्रंथ प्रशस्तियों में से अन्तिम (आवश्यकसूत्र टीका) प्रशस्ति ही अधिक यहां उपयोगी है जिसके आधार पर आचार्य हरिभद्रसूरि के जीवन पर निम्नलिखित प्रकाश पड़ता है।
आचार्य हरिभद्रसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदाय विद्याधर गच्छ के सन्त
१. महत्तरा याकिन्या धर्मपुत्रेण चिन्तिता
आचार्य हरिभद्रण टीकेयं शिष्यबोधिनी ॥ तथा दे०-हरि०प्रा० क० सा० आ० परि०, पृ० ४७ पर उद्धत फुटनोट नं० २ आइणिमयहरियाए रइता एते उघम्य पुत्तण हरिमद्दायारिएण ।
वही, फुट नोट नं. ३ ३. विवृत्तं च याकिनी महत्तरासुनूश्रीहरिभद्राचार्यः । वही, फुट नोट नं० ४ ४. कृति धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोराचार्यहरिभद्रस्य । वही, फुट नोट नं० ५ ५. कृति धर्मतो याकिनीमहत्तरासुनोराचार्य हरिभद्रस्य । हरि०चरि०, पृ० ७ ६. कृतिः सितम्बराचार्यजिनभट्टनिगदानुसारिणो विद्याधरकुलतिलकाचार्य
जिनदत्तशिष्यसाधर्मयतो जाइणीमहत्तरासूनोरल्प मतेराचार्यहरिभद्रस्य । (पिटर्सन) थर्ड रिपोर्ट, पृ० २०२ तथा दे०-हरिपा० क० सा० आ०परि०, पृ० ४८, पर उद्धत फुट नो० नं० १
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