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________________ ___41 भारतीय वाङमय में योगसाधना और योगबिन्दु _पूर्व संस्कार से उत्पन्न ज्ञान में भी गुरुसंवाद अर्थात् आत्मचर्चा निमित्तकारण होती है । संयम की वृद्धि, तत्त्वज्ञान आदि के लिए गुरु की सन्निधि आवश्यक है क्योंकि उनके सान्निध्य और उपदेश से योगसाधना में सफलता प्राप्त होती है। गुरु-सेवा आदि धर्म-कृत्य बाधा रहित होकर करने से लोकोत्तरतत्त्व की सम्प्राप्ति होती है। गुरु की भक्ति एवं सान्निध्य से साधक का मन ध्यान में इतना एकाग्र हो जाता है कि उस अवस्था में उसे तीर्थङ्कर के दर्शन का साक्षात् लाभ होता है और साधक को मोक्ष की भी प्राप्ति होती है।' साधना में जप का महत्त्व . जैन योग साधना के अन्तर्गत आत्मोपलब्धि का उपाय निर्जरा को कहा गया है और निर्जरा का प्रमुख उपाय तपश्चरण है। तप बारह प्रकार का है जिसमें ध्यान भी एक तप है। ध्यान के अन्तर्गत किसी एक मत विशेष का जाप किया जाता है। मन्त्र, देवता अथवा जिनेन्द्रदेव की स्तुति से सम्बन्धित होता है और ऐसे मन्त्रों से जहां पाप, क्लेश और विषाद आदि दूर होते हैं, वहां मानसिक एकाग्रता की भी प्राप्ति होती है। १. जैन यौग का आलोचनात्मक अध्ययन; पृ० ६२ २. एवं गुरुसेवादि च काले सद्योगविघ्नवर्ज़नया । इत्यादिकृत्यकरणं लोकोत्तरतत्त्वसम्प्राप्ति ॥ षोडशक, ५.१६ ३. गुरुभक्तिप्रभावेन तीर्थकृत् दर्शनं मतम् ।। समापत्त्यादिभेदेन निर्वाणफनिबन्धनम् ॥ योगदृष्टि समु०, श्लोक ६४ ४. तपसा निर्जरा च । तत्त्वार्थसूत्र, ६.३ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्याासनकायक्लेशाः बाह्य तपः । तत्त्वार्थसूत्र, ६.१६ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्य स्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ वही, ६.२० तथा मि०-योगशास्त्र, ४.८६-६० सन्मन्त्रजपेनाहो, पापारिः क्षीयतेतराम् । मोहाक्षस्मर चौराद्यैः कषायैः सह दुर्धरैः ।। मनः परीक्षहादीनां, जपः कर्म निरोधनम् । निर्जराकर्मणां मोक्षः, स्यात् सुखं स्वात्मजं सताम् । नमस्कार स्वाध्याय, (संस्कृत) श्लोक १५०-१५१, पृ० १४ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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