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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
महाभारत के द्यूत पर्व' में इसी तथ्य को महात्मा विदुर के माध्यम से बड़े सुन्दर ढंग से उपस्थित किया गया है ।
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तात्पर्य यह है कि इस दुनिया के प्रतिक्षण के व्यवहार में अथवा स्थूल जीवन में दर्शन ( आंख से देखने) को यह महत्त्व इसलिए मिला कि यह देखना संशय आदि से सर्वथा रहित अनुभव में आता है । इसीलिए इस अनुभव को प्राप्त करने वाले को द्रष्टा कहा गया है ।
जिन ऋषियों, कवियों और योगियों ने आत्मा, परमात्मा याकि अन्य किसी अतीन्द्रिय वस्तु का साक्षात्कार किया अथवा अतीन्द्रिय पदार्थों का संशयादि से रहित अनुभव किया, वे ऋषि एवं कवि आदि इन अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञान के विषय में 'द्रष्टा' माने गए हैं । इन्होंने आध्यात्मिक पदार्थों के अनुभवों का यथार्थ तल-स्पर्शी साक्षात्कार किया है । अत: इनका यह साक्षात्कार ही 'दर्शन' है ।
इस तरह दर्शन शब्द आत्मा, परमात्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के स्पष्ट, सन्देह रहित और अविचलित बोध के लिए प्रयोग किया जाने लगा, जिसका अर्थ होता है- 'ज्ञान शुद्धि का परिपाक' या 'सत्यता की पराकाष्ठा' अथवा अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूप का यथार्थ एवं अविकल
ज्ञान ।
भारतीय दार्शनिक परम्परा में 'दर्शन' शब्द का अर्थ 'श्रद्धा' भी लिया गया है । पण्डित प्रवर सुखलाल संघवी ने दर्शन से अभिप्राय 'सबल प्रतीति' लिया है जबकि तत्त्वार्थसूत्रकार ने पदार्थों के वास्तविक स्वरूप में श्रद्धान को दर्शन कहा है और उसमें सत्यता एवं यथार्थता का बोध कराने वाले सम्यक् पद को विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया है ।
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समक्षदर्शनात् साक्ष्यं श्रवणाच्चेति धारणात् । तस्मात् सत्यं बूबन् साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते ॥ महाभारत, सभापर्व ( दूतपर्व) २६१. ७६ संघवी, तत्त्वविद्या, पृ० ११
दे० न्यायकुमुदचन्द्र, २, प्राक्कथन
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्दर्शनम् । तत्त्वार्थसूत्र १.२
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