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भारतीय वाङमय में योगसाधना और योगविन्दु
इतना मात्र नहीं है। भारतीय भाषाओं एवं साहित्य में आत्मविद्या या तत्त्वविद्या या पराविद्या के लिए 'दर्शन' शब्द का प्रयोग निस्संकोच रूप से प्रयुक्त किया गया है।
यहां यह प्रश्न उठता हैं कि चक्षुरिन्द्रिय से पैदा होने वाले ज्ञान का बोध कराने वाला शब्द अतीन्द्रिय ज्ञान या अध्यात्मज्ञान के अर्थ में कैसे प्रयुक्त होने लगा ? इसका समाधान हमें उपनिषदों में मिलता है। उपनिषदों में बाह्य इन्द्रियों के ज्ञान की प्रामाणिकता के बारे में पर्याप्त विचार किया गया है।
किसी घटना को एक एक व्यक्ति ने सुना और दूसरे ने स्वयं मौके पर रहकर उसी घटना को देखा। इन दोनों व्यक्तियों ने किसी तीसरे व्यक्ति से इस घटना का वतान्त कहा। तब कहने वाले दोनों में से किसी एक की बात प्रमाणिक मानी जाएगो, सभी की नहीं।
दूसरे, हम दैनिक जीवन में देखते भी हैं कि जिसने अपनी आंखों से घटना को देखा है, उसी की बात को सही माना और उसे ही प्रमुखता दी गयी क्योंकि चक्षरिन्द्रिय ही एक मात्र ऐसी इन्द्रिय है, जो जैसा घटना क्रम घट रहा होता है उसे उसी रूप में देखती है। इसीलिए घटना को देखने वाले की बात ही प्रमाणिक मानी जाती है। इस प्रकार अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय का स्थान सत्य के अधिक निकट भी ठहरता है। इसी वजह से, अन्य इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान की तुलना में चक्षुजन्यज्ञान, जिसे 'दर्शन' के नाम से जाना जाता है, का उत्कृष्ट स्थान है। बृहदारण्यकोपनिषद्' में इस विषय पर काफी चर्चा भी की गई है।
भारतीय वैयाकरणों ने भी, आंखों से देखने की इस प्रामाणिकता को स्वीकार कर, साक्षी शब्द का अर्थ–साक्षात्-द्रष्टा किया है।
१. चक्षुर्वे सत्यम्, चक्षु हिवेसत्यम् । तस्माद्यदिनी द्वौ विवदमानवेयातामहम
दर्शमध्यश्रोषमिति । य एवं ब्र यादहमदर्शन मिति तस्माए श्रद्दधाम, तद्व तत्सत्यम् । बृहदारण्यकोपनिषद्, ५. १४. ४ । साक्षात् द्रष्टा । साक्षातो द्रष्टेत्यस्मिन्नर्थे इन नाम्नि ख्यात् साक्षी। सिद्धहैमशब्दानुशासन, लघुवृत्ति, ७. १. १६७
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