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________________ 32 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन है। जो अकुशल पाप कर्मों से दूर हट गए हैं, वे अर्हत् आर्य हैं , जैनाचार्य भी आर्य की ऐसी ही व्याख्या करते हैं। ये आर्य ही श्रमण और ब्राह्मण भी हैं। है। इस प्रकार के जिनों के द्वारा प्ररूपित अथवा उपदिष्ट वचनों को मानने वाले, अपने जीवन में उन्हें अक्षरशः उतारने वाले अथवा पालन करने वाले ही जैन कहे जाते हैं। जैन दृष्टि से दर्शन पद दर्शन शब्द भी व्याकरण के अनुसार भवादि गणी परस्मैपदी धातु 'दृश' से ल्युट प्रत्यय लगने पर बनता है । यह 'दृश्' धातु चक्षु से उत्पन्न होने वाले ज्ञान का बोध कराने वाली है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर 'दर्शन' का अर्थ होगा-देखना परन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में इसका अर्थ १. यो खो आवुसो रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो इदं वुच्चति अरहत्त ।। संनि० ३.२५२, पृ० २२४ यस्मा रागादिसंखता सत्वेपि अरयो हता। पचासत्वेन नाथेन तस्मापि अरहं मतो ति ॥ विसु० ७.६, पृ० १३४ अस्स पुग्गलस्स रूपरागो अरूपरागो मानो उद्धच्चं अविज्जा अनवसेसा पहीणा अरहा । पुग्गल पं०, पृ० १८० २. आरकास्स होन्ति पापका अकुसला धम्मा ति अरियो होति । म० नि०, १.२८०, पृ० ३४३ तथा । आरात् याताः पापकेम्यो धर्मेभ्यः इत्यार्याः । अभि ० को० भा०, ३,४४, प० १५७ मि०-आरायाताः सर्वहेयधर्मेम्य इत्यार्याः । सूत्रकृता० ३. ४. ६ अज्ज इति अर्थते प्राप्यते यथामिलाषिततत्वजिज्ञासासुभिरित्यर्थः, आर्यो वा स्वामीत्यर्थः, समस्तेभ्यो हेयधर्मेभ्यः आरात् पृथक् यायते प्राप्यते अर्थात् गुणैरिति अथवा विषयकाठकर्तकत्वेनारासादृश्यादारारत्नत्रयम्, तद्याति प्राप्नोति इति निरुक्त वृत्त्याऽऽकारलोपे कृते आर्यः, सर्वथा सकलकल्मशराशिकलुषितवृत्तिरहित इत्यर्थः । उपा० दशाङग, अ० १, पृ० ५५ तथा दे०-अर्थन्ते सेवन्ते गुणगुणवद् वा आर्याः । जिन सहस्र०, पृ० २२४ ४. दे०-धम्मपद, गा० ४२० ५. संस्कृत हिन्दी कोश, पृ० ४५० . Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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