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________________ 25 भारतीय वाङमय में योगसाधना और योगबिन्दु दर्शन वस्तुतः वह है जो वस्तु या पदार्थ में व्याप्त अनन्त धर्मों की व्याख्या करता हुआ, मानव मात्र में भरे हुए अज्ञान अन्धकार को दूर करता है, और उसके अज्ञान के स्थान पर उनमें दिव्य ज्योति रूप ज्ञान का प्रकाश भर देता है। ज्ञान ही एक मात्र सत्य है, सत् है और अज्ञान असत्य है, असत् है । सत्य को देखने वाला, दिखलाने वाला ही दर्शन है। दर्शन ही एक ऐसी दिव्य ज्योति है, जिसके प्रकाश में पदार्थ के स्वरूप के ऊपर पड़े हुए असत्य के आवरण को हटाकर 'सत्य' को साक्षात्कार कराता है। ईशावास्योपनिषद् में इसी अर्थ में दृष्टि शब्द का प्रयोग मिलता है जैसे एक स्वर्णपात्र में सत्य का चेहरा छिपा हुआ है। हे पूषन् तुम उसे हटा दो, ताकि मैं उसके सच्चे स्वरूप (सत्य धर्म) को देख सकू हिरण्यमयेण पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।। इस विवेचन का यह अर्थ निकलता है कि दर्शन शब्द का शाब्दिक अर्थ चक्षुरिन्द्रिय से देखना है किन्तु दर्शनशास्त्रों में इसका अर्थ दिव्यज्ञान माना जाता है जिसके द्वारा हम सांसारिक अथवा भौतिक पारलौकिक तत्त्वों का प्रत्यक्ष कर पाते हैं । इस चर्चा से एक और बात सामने आती है. कि-अनन्त स्वरूपों वाले पदार्थों का विवेचन, अपने-२ दष्टिकोणों से विभिन्न दार्शनिकों ने किया है। अतः उन-२ दार्शनिकों का पदार्थों के स्वरूप-विवेचन का जो दृष्टिकोण रहा है, वह उसी दर्शन के नाम से समाज में विख्यात हो गया। ऐसे ही जैन दार्शनिकों ने पदार्थों के स्वरूप का जिस दृष्टिकोण से विश्लेषण किया वही दार्शनिक क्षेत्र में जैनदर्शन के नाम से विश्रुत हुआ। अनन्त धर्मात्मक वस्तु जैनदर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है और १. दे० धर्म दर्शन मनन और मूल्यांकन, पृ० ५४ २. ईशावास्योपनिषद्, ५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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