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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
पुनर्जन्म करती है तो वह है एक मात्र सत्त्व का 'चित्त'। हम चाहे जिस नाम से भी पुकारें किन्तु बौद्धों ने इसके चित्त और चैतसिक भेद कर इन्हें अनेक भेदों में बांटा है । ८६ अथवा १२१ भेद तो चित्त के ही हैं और फिर ५२ प्रकार का चैतसिक होता है। ध्यान योग के क्षेत्र में चित्त की ११ वृत्तियों को आचार्यों ने अधिक महत्त्व दिया है। १. विसुद्धिमग्ग
यह पालि साहित्य का एक अमूल्य ग्रन्थरत्न है। इसके लेखक आचार्य बुद्धधोष हैं, जिनका समय ईसा की चौथी शदी स्वीकार किया गया है। बुद्धघोष ने विसुद्धिमग्ग के अतिरिक्त प्रायः निखिल पालि साहित्य पर अट्ठकथाएं भी लिखी है।
विसुद्धिमग्ग का अर्थ निर्वाण प्राप्ति का पवित्र मार्ग है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि विसुद्धिमग्ग में आचार्य बुद्धघोष ने साधकों के लिए योगाभ्यास की युक्तियों को सरल एवं सुबोध भाषा में निबद्ध किया है। इसमें इतना मात्र ही नहीं है, गृहस्थों के लिए भी जगहजगह पर इसमें सद्धर्म का उपदेश दिया गया है। बौद्ध-धर्म का ऐसा कोई अंग अवशिष्ट नहीं, जो विसुद्धिमग्ग में प्रतिपादित न किया गया हो । स्वयं बुद्धघोष कहते हैं कि चारों आगमों के बीच स्थित होकर यह विसुद्धिमग्ग उनके यथार्थ अर्थ को प्रकाशित करेगा।
विसुद्धिमग्ग की रचना बुद्धघोष ने सिंहल में जाकर की थी। यह दो गाथाजी पर आधारित है, वे हैं
१-प्रश्न रूप में-अन्तो जटा बहि जटा, जटाय जटिता पजा।
तं तं गोतम पुच्छामि, को इमं विजट्ये जटं ।।
२ उत्तर में –सीले पट्ठिाय नरो सपनो चित्त पञ्च भावयं ।
आतापी निपको भिक्खु सो इमं विजट्ये जटं ॥
इस तरह यह कृति बुद्धघोष के पाण्डित्य का निदर्शन है। यह पूर्णतः शील, समाधि और प्रज्ञा को विस्तार से ललित शैली में स्पष्ट करता है।
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