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भारतीय वाङ तय में योगसाधना और योगविन्दु
19 विसद्धिमग्ग में २३ अध्याय हैं, जो तीन भागों में विभक्त हैं। प्रथम दो भागों में शील के भिन्न-भिन्न प्रकार और उसे उपाजिन करने के उपायों पर गहन चिन्तन किया गया है। ३-१३ परिच्छेदों में विसद्धिमग्ग को उच्चतर सीढियों का वर्णन है। इसे ही बौद्धों के यहां समाधि कहा गया है। १५-२३ परिच्छेदों में प्रज्ञा का निरूपण है। प्रज्ञा की परिभाषा करते हए बतलाया गया है कि स्कन्ध, आयतन, धातु, इन्द्रिय, सत्य ओर प्रतीत्यसमुत्पाद ये सभी प्रज्ञा की भूमियां हैं।
२. अभिधम्मत्थसंग्गहो
यह ग्रन्थ रत्न भी पालि भाषा में निबद्ध है। इसके रचयिता बर्मा निवासो आचार्य अनिरुद्व हैं। विद्वानों ने इनका समय चौथी शदी का उतरार्ध ओर पांचवो शदो का पूर्वार्द्व स्वीकार किया है। अनुरुद्धाचार्य बुद्धघोष और वसुबन्धु के प्राय: समसामयिक हैं।
अभिधम्मत्थसंग्गहो का आधार बौद्ध धर्म का तृतीयपिटक अभिधम्म (अमिधर्म) पिटक है। इसी कारण उसे अमिधम्मपिटक का प्रवेश द्वार कहा गया है। इससे इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। इसका एक दूसरा महत्त्व और भो है और वह है कि बाद के आचार्यों ने इस पर टीका पर टीकाएं लिखीं हैं। इनकी संख्या लगभग १६ हैं, जिनमें से निम्न ११-१२ प्रमुख हैं। वे हैं
(१) अभिधम्मत्थसंग्गह टीका (२) अभिधम्मत्थविभावनी टीका (३) अभिधम्मत्थसंग्गह सङ क्षेप टीका (४) परमत्थदीपिनी टीका (५) अंकूर टीका
नवनीत टीका (७) अभिधम्मत्थ दीपक (८) विभावनी टीका (8) परमत्थसरूपभेदनी (१०) अभिधम्मत्थसंग्रहभाषा टीका (११) अभिधम्मत्थग हत्थदीपनी (१२) अभिधम्मत्थप्रकाशिनी टीका
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