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भारतीय वाङमय में योगसाधना और योगबिन्दु
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करता है। आत्म दर्शन में मग्न रहकर तथा योग पर आरूढ होकर ही साधक इस भवसागर से पार हो सकता है। ब्रह्मसूत्र के तीसरे अध्याय में आसन एवं ध्यान आदि योगाङ्गों का वर्णन किया गया है। इसी कारण इसका नाम साधना पाद रखा गया है । ७-सांख्यदर्शन
पातञ्जलयोग सांख्य सिद्धान्त की नींव पर ही खड़ा है। दूसरे, सांख्यदर्शन में योग की महत्ता इससे भी सिद्ध है कि गीता के दूसरे अध्याय को सांख्ययोग ही कहा गया है। सांख्यसूत्र (सांख्यदर्शन) का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि वहां पर योग विषयक अनेक सूत्र हैं। ८-वैशेषिकदर्शन में
वैशेषिकदर्शन के प्रणेता कणाद ने योग के अंग-यम-नियम ध्यान एवं धारणा आदि पर बहुत बल दिया है । इतने से ही वैशेषिकदर्शन में योग की महत्ता सिद्ध हो जाती है। ९-न्यायदर्शन में
न्यायदर्शन में भी योग का समुचित वर्णन मिलता है । २–वैदिकतर वाङमय : बौद्ध
बौद्धधर्म में आत्मा को छोड़कर यदि कोई ऐसी वस्तु है, जो १. उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ।
योगारूढत्वमासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया ॥ विवेकचूड़ामणि, श्लोक ६ २. ब्रह्मसूत्र, ४.१.७-११ ३. रागोपहितध्यानम् । सांख्यसूत्र ३.३
वृत्तिनिरोधात् तत् सिद्धिः । वही, ३.३१ ४. अभिषेचनोपवासब्रह्मचर्य गुरुकुलवास वानप्रस्थ
यज्ञदानप्रोक्षणदिङ नक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चादृष्टाय ।
वैशेषिकद०, ६. २. २; ६. २.८ .. ५. (क) समाधिविशेषाभ्यासात् । न्यायदर्शन. ४. २. ३६
(ख) अरण्यगुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः । वही, ४. २. ४० (ग) तदर्ययमनियमाभ्यासात्मसंस्कारो योगाच्चात्मविध्युपायैः॥
वही, ४, २, ४६
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