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________________ 16 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन सत्त्व कर्म-बन्धन में फंसता है और उसी के द्वारा वह उन कर्म बन्धनों की कड़ियों को तोड़कर मुक्ति रमा की प्राप्त करता है। अत: मन की पूर्णशान्ति का माध्यम योग ही है। मन के स्थिर होने पर साधक जागृति, स्वप्न, एवं सुषुप्ति से भिन्न तुरीयावस्था की स्थिति में पहुंचने में सनर्थ होता है। इन्हों अवस्थाओं का विस्तृत विवेचन योगवासिष्ठ में मिलता है। ५-पातञ्जलयोगसूत्र योग का व्यवस्थित एवं प्रामाणिक वर्णन करने का श्रेय महर्षि पतञ्जलि को ही जाता है। योगविद्या के प्रवर्तकों में महर्षि पतञ्जलि अग्रगण्य आचार्य है। महर्षि पतञ्जलि ने अनेक प्राचीन ग्रन्थों में बिखरे हुए योग विषयक विचारों की अपनी असाधारण प्रतिभा के द्वारा सजा-धजा कर योगसूत्र नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया। निःसन्देह यह ग्रन्थ उनकी उद्भट प्रतिभा और गम्भीर मेधाशक्ति का प्रतीक है। योगसूत्र चार पादों में विभक्त है। प्रथम पाद में योग का लक्षण, उसक स्वरूप तथा उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन है। द्वितीय पाद का नाम साधना पाद है। इसमें दुःखों के कारणों पर प्रकाश डाला गया. है। तृतीय विभूति पाद में धारणा, ध्यान-समाधि एवं सिद्धियों का वर्णन है तथा चतुर्थ कैवल्य नामक पाद में चित्त का स्वरूप तथा कैवल्य प्राप्ति का प्रतिपादन किया गया है । ६-अद्वैतदर्शन में भारतीय दर्शनों में वेदान्त दर्शन अपना विशिष्ट स्थान रखता है। यह दर्शन केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यवहारिक भी है। इसमें परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति के लिए उन साधनों पर विचार किया गया है जो योग साधना के लिए अनिवार्य हैं। अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया के कारण ही जीव संसार में भ्रमण २. वही, ४.१६,१५-१८, ५.७८.१० Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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