________________
8
योगबिन्दु के पीरप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
योगबिन्दु
आचारांगसूत्र जो सबसे प्राचीन जैन आगम है, उसमें साधयोगी के लिए धूत-अवधूत शब्दों का प्रयोग हुआ है ।1 'भावनायोग' भी जैनदर्शन का मुख्यअंग है। भावनायोग, योग को पूष्ट करने के लिये प्रयुक्त होता है। सूत्रकृतांगसूत्र में बतलाया गया है कि जिसकी भ वना की शद्धि हो जाती हैं, वह पुरुष किनारे पर स्थित नाव के समान विश्राम करता है अर्थात् भवसागर से पार हो जाता है ।
जैनागम में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को आस्रव कहा गया है। ये ही आस्रव के पांच भेद भी हैं। इनमें भी मिथ्यात्व, कषाय एवं योग की प्रमुखता है क्योंकि अविरति और प्रमाद, कषाय के ही विस्तारमात्र हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जैनागम में वणित आस्रव शब्द चित्तवृत्ति का ही पर्यायवाची है अर्थात् योगदर्शन सम्मत चित्तवृत्ति ही जैनागम में आरव है।
जैनागमोत्तरवर्ती ग्रन्थों में योग शब्द :
आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्रसूरि ने जैनागमों में यत्र-तत्र विकीर्ण हुए योग सम्बन्धी तथ्यों को स्वतन्त्ररूप से संग्रहीत किया और परम्परा से चली आ रही वर्णन-शैली को तत्कालीन विद्यमान परिस्थिति और लोकरुचि के अनुरूप नया मोड़ दिया। उन्होंने उसे और अधिक परिष्कृत एवं विस्तृत कर जैनयोग साहित्य में अभिनव युग को जन्म दिया। उनके द्वारा रचित योग ग्रन्थः स्वत: इसके प्रमाण हैं। उक्त ग्रन्थों में उन्होंने केवल जैन परम्परा के अनुसार योग साधना का वर्णन करके ही सन्तोष कर लिया हो सो ऐसी बात नहीं अपितु पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित योगसाधना एवं परिभाषाओं की
१. आचारांगसूत्र १.६. १८१
भावणाजोगस द्धप्पा, जले णावा व आहिया । नावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खाति उट्टइ ॥ सूत्रकृतांगसूत्र, प्रथम स्क० अ० १५ गा० ५ पंच आसवदारा पण्णता तं जहा-मिच्छत्तं, अविरई, पमायो, कसाया जोगा
समवायांगसूत्र, समवाय-५ ४. योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगशतक और योगविशिका
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org